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________________ 232 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा परीषह का सहन, आदि दुःख के कारण माने हैं, वे उनके लिए हैं जो मन्दपराक्रमी हैं, परमार्थदर्शी नहीं हैं, अतीव दुर्बल हृदय हैं / परन्तु जो महान् दृढ़धर्मी साधक हैं, परमार्थदर्शी हैं, आत्म स्वभाव में लीन एवं स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त हैं, उनके लिए ये सब साधनाएँ दुःखरूप नहीं हैं, बल्कि स्वाधीनतारूप सुख की जननी हैं / अतः सम्यग्ज्ञानपूर्वक की गई ये सब पूर्वोक्त साधनाएँ मोक्ष सुख के साधन हैं। परमार्थचिन्तक महान् आत्मा के लिए ये बाह्य कष्ट भी सुखरूप है, दुःखरूप नहीं। कहा भी है-- "तण संथारनिसको वि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो / जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी घि?" "राग, मद और मोह से रहित मुनिवर तण (घास) की शय्या पर सोया (बैठा) हुआ भी जिस परमानन्दरूप मुक्ति सख का अनभव करता है, वह चक्रवर्ती के भाग्य में भी कहाँ है ?" उन वाह्यदु:खों को तत्त्वज्ञ मुनि सुखजनक कैसे मानते हैं ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-"जे तत्थ आरियं परमं च समाहिए।" तात्पर्य यह है कि परम समाधिकारक (सम्यग्दर्शानादि रत्नत्रय रूप) मोक्षमार्ग है, वैषयिक सुख नहीं। ऐसे मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग के चक्कर में आने का दुष्परिणाम-(१) इस उपसर्ग के प्रभाव में आने पर साधक लोहवणिक् की तरह बहुत पश्चात्ताप करता है, तथा (2) हिंसादि आश्रवों में प्रवृत्त हो जाता है। 231 वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार इस उपरार्ग के शिकार लोगों पर अनुकम्पा लाकर उपदेश देते हैं-इस मिथ्यामान्यता के चक्कर में पड़कर वीतराग प्ररूपित मोक्षमार्ग (अनन्तसुख मार्ग) को या जिन सिद्धान्त को ठुकरा रहे हो, और तुच्छ विषय-सुखों में पड़कर मोक्षसुख की बाजी हाथ से खो रहे हो यह, तुच्छ वस्तु के लिए महामूल्यवान् वस्तु को खोना है ! छोड़ो इस मिथ्या मान्यता को। अगर मिथ्या मान्यता को हठाग्रहवश पकड़े रखोगे, तो बाद में तुम्हें उसी तरह पछताना पड़ेगा, जिस तरह सोना आदि बहुमूल्य धातुएँ छोड़कर हठाग्रहवश सिर्फ लोहा पकड़े रखने वाले लोहवणिक को बहुत पछताना पड़ा था। सावधान ! इस मिथ्याछलना के चक्कर में पड़कर अपना अमूल्य जीवन बर्बाद मत करो ! अन्यथा तुम्हें बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ेगी। 232 वी गाथा में शास्त्रकार इस कुमान्यता के शिकार दुराग्रही व्यक्ति को इसके दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं-आप लोग जब इस कुमान्यता की जिद्द पकड़ लेते हैं तो एकमात्र वैषयिक सुख के पीछे हाथ धोकर पड़ते हैं, तब अपने लिए आप विविध सुस्वादु भोजन बनवाकर या स्वयं पचन-पाचन के प्रपंच आदि में, आलीशान भवनों के बनाने, सुखसाधनों को जुटाने आदि की धुन में अहिंसा महाव्रत को ताक में रख देते हैं, बात-बात में जीवहिंसा का आश्रय लेते हैं। स्वयं को प्रजित एवं भिक्षाशील कहकर गृहस्थों का सा आचरण करते हैं, दम्भ दिखावा करते हैं, यह असत्य भाषण में प्रवृत्त होते हैं। सुखवृद्धि के लिए नाना प्रकार के सुख साधनों को जुटाते हैं, हाथी, घोड़ा, ऊँट, जमीन, आश्रम आदि 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 16-17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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