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________________ 100 [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव / तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते, तस्स णं इमाइं तिणि तेवढाई पावाउयसताई भवंतीति अक्खाताई, तं जहा-किरियावादीणं अकिरियावादीणं अण्णाणियवादीणं वेणइयवादीणं, ते वि निव्वाणमासु, ते वि पलिमोक्खमाहंसु, ते वि लवंति सावगा,' ते वि लवंति सावइत्तारो। 717. (संक्षेप में) सम्यक विचार करने पर ये तीनों पक्ष दो ही स्थानों में समाविष्ट हो जाते हैं जैसे कि धर्म में और अधर्म में, उपशान्त और अनुपशान्त में। पहले जो अधर्मस्थान का विचार पूर्वोक्त प्रकार से किया गया है, उसमें इन 363 प्रावादुकों (मतवादियों) का समावेश हो जाता है, यह पूर्वाचार्यों ने कहा है। वे (चार कोटि के प्रावादुक) इस प्रकार हैं-क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। वे भी 'परिनिर्वाण' का प्रतिपादन करते हैं; वे भी मोक्ष का निरूपण करते हैं; वे भी अपने श्रावकों को धर्मोपदेश करते हैं (उनसे पालाप करते हैं) वे भी अपने धर्म को सुनाते हैं। ७१८-ते सव्वे पावाउया प्रादिकरा धम्माणं नाणापण्णा नाणाछंदा नाणासीला नाणादिट्टी नाणारुई नाणारंभा नाणाझवसाणसंजुता एगं महं मंडलिबंध किच्चा सव्वे एगो चिट्ठति, पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं अयोमएणं संडासएणं गहाय ते सम्वे पावाउए प्राइगरे धम्माणं नाणापण्णे जाव नाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वदासी-हं भो पावाउया प्रादियरा धम्माणं णाणापण्णा जावऽभवसाणसंजुत्ता ! इमं ता तुन्भे सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुग्णं गहाय मुहत्तगं महत्तगं पाणिणा धरेह, णो यहु संडासगं संसारियं कुज्जा, णो यह अग्गिथंभणियं कुज्जा, गोय हुसाहम्मियवेयावडियं कुज्जा, जोय हपरधम्मियवेयावडियं कूज्जा, उज्जया णियागपडिवन्नाअमायं कुब्वमाणापाणि पसारेह, इति वच्चा से पुरिसे तेसि पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाति बहुपडिपुण्णं प्रोमएणं संडासतेणं गहाय पाणिसु णिसिरति, तते णं ते पावाउया प्रादिगरा धम्माणं नाणापन्ना जाव नाणा 1. ते वि लवंति सावगा-चूर्णिकार प्रश्न उठाते हैं, लोग उनके पास क्यों सुनने व शरण लेने जाते हैं ? इसका उत्तर है-मिथ्यापद के प्रभाव से। ग्रादि तीर्थकर (अपने मत प्रवर्तकत्त्व की दष्टि से) कपिलादि श्रावकों को धर्मोपदेश देते हैं, उनके शिष्य भी परम्परा से धर्मश्रवण कराते हैं। धर्म श्रवण करने वाले 'श्रावक' या 'श्राव इतर' कहलाते हैं। 2. पावातिया-'शास्तार इत्यर्थः, तद्धि शास्तुभशं वदन्तीति प्रावादकाः प्रवदनशीला-सूत्र कृ. चणि (स.पा.टि.) प्र. 190 / अर्थात प्रावादिक का अर्थ है-शास्ता, वे अपने अनुयायियों पर शासन-अनुशासन करने के लिए बहुत बोलते हैं, इसलिए वे प्रावादुक हैं / अथवा प्रवदनशील होने से प्रावादिक हैं। 3. 'णो य अग्मिथंभणियं कूज्जा'–णो अग्गिथंभणविज्जाए आदिच्चमंतेहि अग्गी थभिज्जह—अर्थात-अग्निस्तम्भन विद्या से या प्रादित्यमंत्रों से अग्निस्तम्भन न करें। 4. 'णो."साधम्मियवेयावडियं'--'पासंडियस्स थंभेति, परपासंडितस्स वि परिचएण थंभेइ'-अर्थात-'सार्मिक स्वतीर्थिक व्रतधारी इस आग को न रोके, न ही परपाषण्डी (अन्यतीथिक व्रतधारी) परिचयवश उस अग्नि को रोके। 5. णिकायपडिवण्णा (पाठान्तर)..सबहसाविता इत्यर्थः / अर्थात्-शपथ लेकर प्रतिज्ञाबद्ध हुए। -सूत्र कृ. चूणि (मू. पा. टि.) पृ. 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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