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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 719 ] [ 101 झवसाणसंजुत्ता पाणि पडिसाहरेंति, तते णं से पुरिसे ते सव्वे पावाउए प्रादिगरे धम्माणं जाव नाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वदासी-हं भो पावाउया प्रादियरा धम्माणं जाव णाणाझवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुम्भे पाणि पडिसाहरह ?, पाणी नो डझेज्जा दट्ट किं भविस्सइ ?, दुक्खं-दुक्खं ति मण्णमाणा पडिसाहरह, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे। 718. वे (पूर्वोक्त 363) प्रावादुक अपने-अपने धर्म के आदि-प्रवर्तक हैं / नाना प्रकार की बुद्धि (प्रज्ञा), नाना अभिप्राय, विभिन्न शील (स्वभाव), विविध दृष्टि, नानारुचि, विविध प्रारम्भ, और विभिन्न निश्चय रखने वाले वे सभी प्रावादुक (स्वधर्मशास्ता) (किसी समय) एक स्थान में मंडलीबद्ध होकर बैठे हों, वहाँ कोई पुरुष आग के अंगारों से भरी हुई किसी पात्री (बर्तन) को लोहे की संडासी से पकड़ कर लाए, और नाना प्रकार की प्रज्ञा, अभिप्राय, शील, दृष्टि, रुचि, प्रारम्भ, और निश्चय वाले, धर्मों के प्रादि प्रवर्तक उन प्रावादूकों से कहे--"अजी! नाना प्रकार की बुद्धि आदि तथा विभिन्न निश्चय वाले धर्मों के आदिप्रवर्तक प्रावादुको! आप लोग आग के अंगारों से भरी हुई (इस) पात्री को लेकर थोड़ी-थोड़ी देर (मुहर्त -मुहूर्त भर) तक हाथ में पकड़े रखें, (इस दौरान) संडासी की (बहुत) सहायता न लें, और न ही प्राग को बुझाएँ या कम करें, (इस आग से) अपने साधार्मिकों की (अग्निदाह को उपशान्त करने के रूप में) वैयावृत्य (सब या उपकार) भी न कीजिए, न ही अन्य धर्म वालों की वैयावृत्य कीजिए, किन्तु सरल और मोक्षाराधक (नियागप्रतिपन्न) बनकर कपट न करते हुए अपने हाथ पसारिए।' यों कह कर वह पुरुष आग के अंगारों से परी भरी हई उस पात्री को लोहे की संडासी से पकड़कर उन प्रावादुकों के हाथ पर रखे / उस समय धर्म के आदि प्रवर्तक तथा नाना प्रज्ञा, शील अध्यवसाय आदि से सम्पन्न वे सब प्रावादुक अपने हाथ अवश्य ही हटा लेंगे।" यह देख कर वह पुरुष नाना प्रकार की प्रज्ञा, अध्यवसाय आदि से सम्पन्न, धर्म के आदि प्रवर्तक उन प्रावादुकों से इस प्रकार कहे---'अजी! नाना प्रज्ञा और निश्चय आदि वाले, धर्म के आदिकर प्रावादुको! आप अपने हाथ को क्यों हटा रहे हैं ?' "इसीलिए कि हाथ न जले !" (हम पूछते हैं---) हाथ जल जाने से क्या होगा? यही कि दुःख होगा / यदि दुःख के भय से आप हाथ हटा लेते हैं तो यही बात आप सबके लिए मानिए, यही (युक्ति) सबके लिए प्रमाण मानिए यही धर्म का सार-सर्वस्व समझिए / यही बात प्रत्येक के लिए तुल्य (समान) समझिए, यही युक्ति प्रत्येक के लिए प्रमाण मानिए, और इसी (आत्मौपत्य सिद्धान्त) को प्रत्येक के लिए धर्म का सार-सर्वस्व (समवसरण) समझिए / ७१६-तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खंति जावेवं परूवेंति-'सवे पाणा जाव सत्ता हंतव्या मज्जावेतवा परिघेत्तव्वा परितावेयव्वा किलामेतव्वा उद्दवेतम्या, ते आगंतु छेयाए, ते आगंतुं भेयाए, ते पागंतु जाति-जरा-मरण-जोणिजम्मण-संसार-पुणब्भव-गब्भवास-भवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूणं दंडणाणं बहूर्ण मुंडणाणं तज्जणाणं तालणाणं अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पितिमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जामरणाणं पुत्तमरणाणं धूयमरणाणं सुण्हामरणाणं दारिहाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणसाणं प्राभागिणो भविस्संति, प्रणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्ध चाउरतसंसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्संति, ते नो सिन्झिस्संति नो बुझिस्संति जाव नो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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