________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 847] [191 उसका कोई वास्ता नहीं, न उससे उसका व्रतभंग होता है, क्योंकि कर्मवश पर्याय परिवर्तन होता रहता है। अभियोग-यहाँ अभियोग शब्द बलात् प्राज्ञा द्वारा या दवाव द्वारा विवश करने के संयोग (योग) के अर्थ में रूढ़ है। श्रावक को व्रत, प्रत्याख्यान, नियम या सम्यक्त्व ग्रहण करते समय इन छह अभियोगों का आगार (छूट) रखा जाता है, जैनागमों में ये छह अभियोग बताए गए हैं-(१) राजाभियोग, (2) गणाभियोग, (3) बलाभियोग, (3) देवाभियोग, (5) महत्तराभियोग, (6) आजीविकाभियोग / इसी विवशपरिस्थिति के आगार को छह-छंडी आगार भी कहते हैं / - गृहपति-चोरविमोक्षण न्याय-एक राजा की प्राज्ञा थी, समस्त नागरिक शाम को ही नगर के बाहर आकर कौमुदीमहोत्सव में भाग लें। जो नगर में ही रह जाएगा, उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा। एक वैश्य के छह पुत्र अपने कार्य की धुन में नगर के बाहर जाना भूल गए / सूर्यास्त होते ही नगर के सभी मुख्यद्वार बन्द कर दिये गए। प्रातःकाल वे छहों वैश्य पत्र राजपुरुषों द्वारा पकड़ लिये गए / राजा के द्वारा मृत्युदण्ड की घोषणा सुनकर वैश्य अत्यन्त चिन्तित हो उठा। राजा से उसने छहों पुत्रों को दण्डमुक्त करने का अनुरोध किया। जब राजा ऐसा करने को तैयार न हुआ तो उसने क्रमश: पाँच, चार, तीन, दो और अन्त में वंश सुरक्षार्थ एक पुत्र को छोड़ देने की प्रार्थना की। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करके एक पुत्र को छोड़ दिया। यह इस न्याय (दृष्टान्त) का स्वरूप है / दार्टान्तिक यों है-वृद्धवैश्य अपने छहों पुत्रों को राजदण्ड से मुक्त कराना चाहता था, किन्तु जब यह शक्य न हुआ तो अन्त में उसने एक पुत्र को ही छुड़ाकर संतोष माना, इसी तरह साधु सभी प्राणियों (षटकायिक जीवों) को दण्ड देने का प्रत्याख्यान (त्याग) कराना चाहता है, उसकी इच्छा नहीं है कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणी का हनन करे; किन्तु जब प्रत्याख्यानकर्ता व्यक्ति सभी प्राणियों का घात करना छोड़ना नहीं चाहता या छोड़ने में अपनी असमर्थता अनुभव करता है, तब साधु उससे जितना बन सके उतना ही त्याग कराता है। श्रावक अपनी परिस्थितिवश षट्काय के जीवों में से त्रसकायिक प्राणियों के घात का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है। इसलिए त्रसकायिक जीवों के दण्ड (घात) का (प्रत्याख्यान) करने वाला साधु स्थावर प्राणियों के घात का समर्थक नहीं होता। उदकनिर्ग्रन्थ की भाषा में दोष-श्री गौतमस्वामी ने त्रिविध भाषादोष की ओर उदकनिर्ग्रन्थ का ध्यान खींचा है—(१) ऐसी भाषा जिनपरम्परानुसारिणी तथा साधु के बोलने योग्य नहीं है, (2) 'त्रसभूत' पद का प्रयोग न करने वाले श्रमणों पर व्यर्थ ही प्रतिज्ञाभंग का दोषारोपण करते हैं, इससे आप उन श्रमणों एवं श्रमणोपासकों के हृदय में अनुताप पैदा करते हैं, (3) बल्कि उन पर कलंक लगा कर उन श्रमण व श्रमणोपासकों को उन-उन प्राणियों के प्रति संयम करने कराने से हतोत्साहित करते हैं, प्रत्याख्यान करने-कराने से रोकते हैं, प्राणिसंयम करने वालों को संशय में डालते हैं, उनमें बुद्धिभेद पैदा करते हैं। 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 410 से 412 तक का सारांश (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ. 238-239 2. सूत्रकृतांम शीलांक वृत्ति पत्रांक 411 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org