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________________ 190] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध जो श्रमण या माहन इस प्रकार (आपके मन्तव्यानुसार) कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण या निम्रन्थ यथार्थ भाषा (भाषासमितियुक्त वाणी) नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी (सन्ताप या पश्चात्ताप उत्पन्न करने वाली) भाषा बोलते हैं / वे लोग श्रमणों और श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं, तथा जो (श्रमण या श्रमणोपासक) प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के विषय में संयम (ग्रहण) करते-कराते हैं, उन पर भी वे दोषारोपण करते हैं। किस कारण से (वह मिथ्या दोषारोपण होता है ? (सुनिये,) समस्त प्राणी परिवर्तनशील (परस्पर जन्म संक्रमण-शील संसारी) होते हैं। त्रस प्राणी स्थावर के रूप में आते हैं, इसी प्रकार स्थावर जीव भी बस के रूप में आते हैं। (तात्पर्य यह है-) त्रस जीव सकाय को छोड़कर (कर्मोदयवश) स्थावर काय में उत्पन्न होते हैं, तथा स्थावर जीव भी स्थावर काय का त्याग करके (कर्मोदयवश) त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं / अतः जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रसजीवघात-प्रत्याख्यानी पुरुषों द्वारा हनन करने योग्य नहीं होते / विवेचन--उदक निम्रन्थ की प्रत्याख्यान विषयक शंका एवं गौतम स्वामी का समाधानप्रस्तुत सूत्रद्वय में से प्रथम सूत्र में उदक निम्रन्थ द्वारा अपनी प्रत्याख्यानविषयक शंका तीन भागों में प्रस्तुत की गई है (1) अभियोगों का प्रागार रख कर जो श्रावक सप्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करते हैं, वे कर्मवशात् उन त्रसजीवों के स्थावर जीव के रूप में उत्पन्न होने पर उनका वध करते हैं, ऐसी स्थिति में वे प्रतिज्ञाभंग करते हैं, उनका प्रत्याख्यान भी दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है / (2) उन गृहस्थ श्रमणोपासकों को उस प्रकार का प्रत्याख्यान कराना भी दुष्प्रत्याख्यान है, तथा वे साधक अपनी प्रतिज्ञा का भी अतिक्रमण करते हैं; जो उन श्रमणोपासकों को उस प्रकार से प्रत्याख्यान कराते हैं। (3) मेरा मन्तव्य है कि 'वस' पद के आगे 'भूत' पद को जोड़ कर त्याग कराने से प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है, और इस पद्धति से प्रत्याख्यान कराने वाला भी दोष का भागी नहीं होता / क्या यह प्रत्याख्यानपद्धति न्यायोचित एवं आपको रुचिकर नहीं है ? द्वितीय सूत्र में श्री गौतमस्वामी ने उदकनिर्ग्रन्थ की उपर्युक्त शंका का समाधान भी तीन भागों में किया है। (1) आपकी प्रत्याख्यान पद्धति हमें पसन्द नहीं है। अरुचि के तीन कारण ध्वनित होते हैं--(१) 'भूत' शब्द का प्रयोग निरर्थक है, पुनरुक्तिदोषयुक्त है, (2) 'भूत' शब्द सदशार्थक होने से 'ससदश' अर्थ होगा, जो अभीष्ट नहीं, और (3) भूतशब्द उपमार्थक होने से उसी अर्थ का बोधक होगा, जो निरर्थक है : (2) इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले श्रमण यथार्थ भाषा नहीं बोलते, वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं, प्राणिहिंसा पर संयम करने-कराने वाले श्रमण-श्रमणोपासकों पर मिथ्या दोषारोपण करते हैं। (3) श्रमणोपासक को उसी प्राणी को मारने का त्याग है, जो वर्तमान में 'त्रस' पर्याय में है, वह जीव भूतकाल में स्थावर रहा हो या वर्तमान में बस से स्थावर बन गया हो, उससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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