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________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथमक्रियास्थान-अर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण ६६५–पढमे दंडसमादाणे / अट्ठादंडवत्तिए ति पाहिज्जति से / जहानामए केइ पुरिसे प्रातहेर्ड वा जाइहेउं वा प्रगारहेउ वा परिवारहेउं वा मित्तहेउं वा णागहेडं वा भूतहे वा जक्खहे वा तं दंडं तस थावरेहि पाहि सयमेव णिसिरति, अण्णण वि णिसिराति, अण्णं पि णिसिरंत समणुजाणति, एवं खलु तस्स लप्पत्तियं सावज्जे ति पाहिज्जति, पढमे दंडसमादाणे अढादंडवत्तिए त्ति प्राहिते।' ६६५-~-प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कि कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए, अपने घर या परिवार के लिए, मित्रजनों के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष आदि के लिए स्वयं बस और स्थावर जीवों को दण्ड देता है (प्राणिसंहारकारिणी क्रिया करता है); अथवा (पूर्वोक्त कारणों से) दूसरे से दण्ड दिलवाता है; अथवा दूसरा दण्ड दे रहा हो, उसका अनुमोदन करता है / ऐसी स्थिति में उसे उस सावधक्रिया के निमित्त से पापकर्म का बन्ध होता है / यह प्रथम दण्डसमादान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन प्रथम क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण-प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने तेरह क्रियास्थानों में से अर्थदण्डप्रत्यायिक नामक प्रथम क्रियास्थान का स्वरूप, प्रवृत्तिनिमित्त एवं उसकी परिधि का विश्लेषण किया है / अर्थदण्ड-हिंसा आदि दोषों से युक्त प्रवृत्ति, फिर चाहे वह किसी भी प्रयोजन से, किसी के भी निमित्त की जाती हो, अर्थदण्ड है। अर्थदण्डप्रत्यायिक क्रियास्थान : भ० महावीर की दष्टि में कई मतवादी सार्थक क्रियाओं से जनित दण्ड (हिंसादि) को पापकर्मवन्धकारक नहीं मानते थे, किन्तु भगवान् महावीर की दृष्टि में वह पाप-कर्मबन्ध का कारण है। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट कर देते हैं कि जो पुरुष अपने या किसी भी दूसरे प्राणी के लिए अथवा नाग भूत-यक्षादि के निमित्त त्रस स्थावरप्राणियों की हिंसा करता, करवाता और अनुमोदन करता है, उसे उस सावधक्रिया के फलस्वरूप अर्थदण्डप्रत्ययिक पाप कर्म का बन्ध होता है। पुरिसे- यहाँ पुरुष शब्द उपलक्षण से चारों गतियों के सभी प्राणियों के लिए प्रयुक्त है / द्वितीय क्रियास्थान-अनर्थदण्डप्रत्यायक : स्वरूप और विश्लेषण 666--(1) अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए ति पाहिज्जति / से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ते णो अच्चाए णो प्रजिणाए णो मंसाए णो सोणियाए एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णहाए हारुणोए अट्ठीए अमिजाए, णो हिसिसु में ति, णो हिसंति में त्ति, णो हिसिस्संति में त्ति, जो पुत्तपोसणयाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवहणताए णो समण-माहणवत्तियहे, जो तस्स सरीरगस्स किचि वि 1. तुलना--पढमे दंडसमादाणे अट्ठाउंडवत्तिए.... .त्ति आहिते ।'-आवश्यकचणि प्रतिक्रमणाध्ययन, पृ. 127 / 2. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 306 का भारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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