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________________ 180) [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ८३३-अव्वत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमवयं च / सब्वेसु भूतेसु वि सव्वतो सो, चंदो व्व ताहि समत्तरूवो // 47 // ८३२-८३३–(इसके पश्चात् सांख्यमतवादी एकदण्डीगण आद्रकमुनि से कहने लगे-) आप और हम दोनों ही धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित-उद्यत हैं। (हम दोनों) भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों कालों में धर्म में भलीभांति स्थित हैं / (हम दोनों के मत में) प्राचारशील पुरुष को ही ज्ञानी कहा गया है / आपके और हमारे दर्शन में 'संसार' (सम्पराय) के स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। (देखिये, आपके और हमारे मत की तुल्यता-) यह पुरुष (जीवात्मा) अव्यक्तरूप (मन और इद्रियों से अगोचर) है, तथा यह सर्वलोकव्यापी सनातन (नित्य) अक्षय एवं अव्यय है / यह जीवात्मा समस्त भूतों (प्राणियों) में सम्पूर्ण रूप से उसी तरह रहता है, जिस तरह चन्द्रमा समस्त तारागण के साथ सम्पूर्ण रूप से (सम्बन्धित) रहता है। ८३४--एवं न मिजंति न संसरंति, न माहणा खत्तिय वेस पेस्सा। कोडा य पक्खी य सिरीसिवा य, नरा य सव्वे तह देवलोगा // 48 // ८३४-(आर्द्र क मुनि कहते हैं-) इस प्रकार (आत्मा को एकान्त नित्य एवं सर्वव्यापक) मानने पर (सुखी, दुःखी आदि भेदों की) संगति नहीं हो सकती और जीव का (अपने कर्मानुसार नाना गतियों में) संसरण (गमनागमन) भी सिद्ध नहीं हो सकता। और न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रष्य (शुद्र) रूप भेद ही सिद्ध हो सकते हैं। तथा कीट, पक्षी, सरीसृप (सर्प-आदि) इत्यादि योनियों की विविधता भी सिद्ध नहीं हो सकती। इसी प्रकार मनुष्य, देवलोक के देव आदि सब गतियाँ भी सिद्ध नहीं होंगी। 835 लोयं प्रजाणित्तिह केवलेणं, कहेंति जे धम्ममजाणमाणा। नासेंति अप्पाण परं च णट्टा, संसार घोरम्मि अणोरपारे // 46 // ८३५-इस लोक को केवलज्ञान के द्वारा न जान कर (वस्तु के सत्यस्वरूप से) अनभिज्ञ जो व्यक्ति धर्म का उपदेश करते हैं, वे स्वयं नष्ट जीव अपने आप का और दूसरे का भी अपार तथा भयंकर (घोर) संसार में नाश कर देते हैं। 836 लोयं विजाणंतिह केवलेणं, पुण्णेण गाणेण समाहिजुत्ता। धम्म समत्तं च कहेंति जे उ, तारेति अप्पाण परं च तिण्णा // 50 // ८३६--परन्तु जो व्यक्ति समाधियुक्त हैं, वे (प्रज्ञ अथवा) पूर्ण केवलज्ञान के द्वारा इस लोक को विविध प्रकार से यथावस्थित रूप से जान पाते हैं, वे ही समस्त (समग्र शुद्ध, सम्यक्) धर्म का प्रतिपादन करते हैं / वे स्वयं संसारसागर से पार हुए पुरुष दूसरों को भी (सदुपदेश देकर) संसार सागर से पार करते हैं / ८३७–जे गरहितं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया। उदाहडं तं तु समं मतीए, अहाउसो विप्परियासमेव // 51 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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