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________________ आई कोय : छठा अध्ययन : सूत्र 838] [181 ८३७-~-इस लोक में जो व्यक्ति निन्दनीय स्थान का सेवन (निन्द्य आचारण) करते हैं, और जो साधक उत्तम आचरणों से युक्त हैं, उन दोनों के अनुष्ठानों (आचरणों) को असर्वज्ञ व्यक्ति अपनी बुद्धि (अपने मन या मत) से एक समान बतलाते हैं। अथवा हे आयुष्मन् ! वे (शुभ आचरण करने वालों को अशुभ आचरण करने वाले और अशुभ आचरण करने वालों को शुभ आचरण करने वाले बताकर) विपरीतप्ररूपणा करते हैं। विवेचन-- सांस्यमतवादी एकदण्डिकों के साथ तात्त्विक चर्चा-प्रस्तुत 6 सूत्रगाथाओं में प्रारम्भ की दो गाथाओं में एकदण्डिकों द्वारा आद्रक मुनि को अपने मत में खींचने के उद्देश्य से सांख्य और जैनदर्शन की दोनों दर्शनों में प्रदर्शित की गई समानता की बातें अंकित की गई हैं, श्री आर्द्रक द्वारा तात्त्विक अन्तर के मुद्दे प्रस्तुत करके जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्तों की की गई प्रस्थापना का शेष गाथाओं में उल एकदण्डिकों द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष के मुद्दे-(१) यम-नियम रूप धर्म को दोनों ही मानते है, (2) हम और आप धर्म में स्थित हैं, (3) आचारशील (यमनियमादि का आचरणकर्ता ) ही उत्कृष्ट ज्ञानी है (4) संसार का आविर्भाव तिरोभावात्मक स्वरूप जैनदर्शन के उत्पाद-व्यय धोव्य युक्त स्वरूप (अथवा द्रव्य) रूप नित्यपर्याय रूप से अनित्य रूप के समान ही है / (5) आत्मा अव्यक्त सर्वलोकव्यापी, नित्य अक्षय अव्यय, सर्वभूतों में सम्पूर्णत: व्याप्त है। प्राक द्वारा प्रदशित दोनों दर्शनों का तात्त्विक अन्तर-(१) धर्म को मानते हुए भी यदि उस धर्म का निरूपण अपूर्ण ज्ञानी करते हैं, तो वे स्वपर को संसार के गर्त में डालकर विनष्ट करते हैं। (2) सांख्यदर्शन में केवल 25 तत्वों के ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति की मान्यता के कारण धर्माचरण रहित केवल तत्त्वज्ञान बघारने वाले तथा धर्माचरणयुक्त तत्त्वज्ञ, दोनों को समान माना जाता है, यह उचित नहीं। (3) सांख्य एकान्तवादी हैं, जैन अनेकान्तवादी। (4) आत्मा को सांख्य सर्वव्यापी मानते हैं, जैन मानते हैं-शरीरमात्रव्यापी / (5) प्रात्मा सांख्यमतानुसार कटस्थ नित्य है, जैन मतानुसार कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य है। कूटस्थ नित्य या सर्वव्यापी प्रात्मा आकाशवत् कभी गति नहीं कर सकता, जबकि वह देव, नरक आदि गतियों में गमनागमन करता है, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई बालक, कोई युवक आदि अवस्थाभेद योनिभेद या जातिभेद वर्णभेद आदि कटस्थ नित्य आत्मा में नहीं बन सकते / (6) सांख्यमान्य, संसार के नित्य स्वरूप को भी जैन दर्शन नहीं मानता, वह जगत् को उत्पाद-व्ययसहित ध्रौव्यस्वरूप मानता है। (7) जैन दर्शन केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं मानता, जबकि सांख्य 25 तत्त्वों के ज्ञानमात्र से ही मोक्ष मान लेता है और वे तत्त्व भी वास्तव में तत्त्व नहीं हैं।' हस्तितापसों का विचित्र अहिंसामतः पाक द्वारा प्रतिवाद ८३८-संवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु / __ सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो // 52 // ८३८-(अन्त में हस्तितापस आई कमुनि से कहते हैं--) हम लोग (अपनी तापसपरम्परा 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 401 से 403 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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