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________________ 78 सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय लिप्त (अशुद्ध) हो जाता है, वह तीसरी अवस्था / तीन अवस्थाओं की मान्यता के कारण इन्हें त्रैराशिक कहा जाता है। इन दोनों गाथाओं में इसी मत का निदर्शन किया गया है।५ शुद्ध निष्पाप आत्मा पुनः अशुद्ध और सपाप क्यों ?-प्रश्न होता है, जो आत्मा एक बार कर्मफल से सर्वथा रहित हो चुका है, शुद्ध-बुद्ध-मुक्त, निष्पाप हो चुका है, वह पुनः अशुद्ध, कर्मफल युक्त और पापयुक्त कैसे हो सकता है ? जैसे बीज जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न होना असम्भव है, वैसे ही कर्मबीज के जल जाने पर फिर संसार रूपी (जन्म-मरण युक्त) अंकुर का फूटना असम्भव है। गीता में इसी तथ्य का समर्थन अनेक बार किया गया है / जितनी भी अध्यात्म साधनाएँ की जाती हैं, उन सबका उद्देश्य पाप से, कर्मबन्ध से, राग-द्वेष-कषायादि विकारों से सर्वथा मुक्त, शुद्ध एवं निष्पाप होना है। भला कौन ऐसा साधक होगा, जो शुद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के बाद पुनः अशुद्धि और राग-द्वेष की गन्दगी में आत्मा को डालना चाहेगा? अगर ऐसा हुआ, तब तो सारा काता-पींजा कपास हो जायेगा। इतनी की हुई साधना मिट्टी में मिल जायेगी। परन्तु त्रैराशिक मतवादी इन सब युक्तियों की परवाह न करके मुक्त एवं शुद्ध आत्मा के पुनः प्रकट होने या पुनः कर्म रज से मलित होकर कर्मबन्ध में जकड़ने के दो मुख्य कारण बताते हैं-'पुणो कोडापोसेण:'- इसका आशय यह है कि उस मुक्तात्मा को अपने शासन की पूजा और पर-शासन (अन्य धर्मसंघ) का अनादर देखकर (क्रीड़ा) प्रमोद उत्पन्न होता है, तथा स्वशासन का पराभव और परशासन का अभ्युदय देखकर द्वेष होता है। इस प्रकार वह शुद्ध आत्मा राग-द्वष से लिप्त हो जाता है, राग-द्वष ही कर्मबन्ध के कारण हैं, इस कारण पुन: अशुद्ध-सापराध हो जाता है। वह आत्मा कैसे पुनः मलिन हो जाता है ? इसके लिए वे एक दृष्टान्त देकर अपने मत का समर्थन करते हैं---"वियडम्बु जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा / " आशय यह है कि जैसे मटमैले पानी को निर्मली या फिटकरी आदि से स्वच्छ कर निर्मल बना लिया जाता है, किन्तु वही निर्मल पानी, आँधी, तूफान आदि के द्वारा उड़ायी 25 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 45-46 (ख) 'ते एव च आजीवकास्त्रराशिका भगिताः-समवायांगवृत्ति अभयदेव सूरि पृ० 130 (ग) स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिक: निराकृतः- सूत्रकृ० 2 श्रु० 6 अ० गा--१४-- (घ) 'राशिका: गोशालकमतानुसारिणो येषामेकविशतिसूत्राणि पूर्वगत राशिक सूत्रपरिपाट्या व्यवस्थितानि / " --सूत्र. 1 श्रु. 1 सूत्र गा 70 वृत्ति 26 (क) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० 233 (ख) "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः / / (ग) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् / नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः / / 15 / / ......"मामुपेत्य तु कौन्तेय ! पुनर्जन्म न विद्यते // 16 // यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम // 21 // -~गीता अ० 8 / 15-16-21 (घ) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 45 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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