________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 70 से 71 गयी रेत, मिट्टी, कचरा आदि के कारण पुनः मलिन हो जाता है, वैसे ही कोई जीव मनुष्य जन्म पाकर राग-द्वष से, कषायादि से या कर्मों से मलिन बनी हुई अपनी आत्मा को मुनि बनकर संयम-नियमादि की साधना करके विशुद्ध बना लेता है, एक दिन वह आत्मा समस्त कर्मरहित होकर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाता है, किन्तु पुनः पूर्वोक्त कारणवश राग-द्वेष की आँधी या तूफान आने से वह विशुद्धात्मा पुनः अशुद्ध एवं कर्म-मलिन हो जाता है। - इस सम्बन्ध में चर्णिकार 70 वीं गाथा के उत्तरार्द्ध में कोलावणपदोसेणा र जसा अवतारते, इस प्रकार का पाठान्तर मानकर अवतारवाद की झाँकी प्रस्तुत करते हैं-वह आत्मा मोक्ष प्राप्त (मुक्त) होकर भी क्रीड़ा और प्रदोष के कारण (कर्म) रज से (लिप्त होने से) संसार में अवतरित होता (जन्म लेता है। इस कारण वह अपने धर्म शासन की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए रजोगुण युक्त होकर अथवा उस कर्म रज से श्लिष्ट होकर अवतार लेता है।२७ कुछ-कुछ इसी प्रकार की मान्यता बौद्ध धर्म के एक सम्प्रदाय की तथा धर्म-सम्प्रदायों की भी है। उनका कथन है कि सुगत (बुद्ध) आदि धर्म तीर्थ के प्रवर्तक ज्ञानी तीर्थकर्ता (अवतार) परम पद (मोक्षावस्था) को प्राप्त करके भी जब अपने तीर्थ (धर्म-संघ) का तिरस्कार (अप्रतिष्ठा या अवनति) देखते हैं तो (उसका उद्धार करने के लिए) पुनः संसार में आते हैं (अवतार लेते हैं)।२८ धर्म का ह्रास और अधर्म का अभ्युत्थान (प्रतिष्ठा) होता देखकर मुक्त आत्मा के अवतरित होने की मान्यता वैदिक-परम्परा में प्रसिद्ध है और गीता आदि ग्रन्थों में अवतारवाद का स्पष्ट वर्णन है"जव-जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि-उन्नति होने लगती है, तब-तब मैं (मुक्त आत्मा) ही अपने रूप को रचता हूँ-प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा तथा दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए मैं युग-युग में जन्म (अवतार) लेता हूँ।” अत: इसे अवतारवाद या पुनरागमनवाद भी कहा जा सकता है। गाथा 70 में शुद्ध आत्मा के पुनः अशुद्ध एवं कमंलिप्त होने के दो कारण-क्रीड़ा एवं प्रद्वष बताये गये हैं, वे इस अवतारवाद में संगत होते हैं। क्रीड़ा का अर्थ जो भक्तिवादी सम्प्रदायों में प्रचलित है, वह है, 'लीला।' ऐसा कहा जाता है-'भगवान् अपनी लीला दिखाने के लिए अवतरित होते हैं / अथवा 27 “स मोक्षप्राप्तोऽपि भूत्वा कीलाबणप्पदोसेण रजसा अवतारते / तस्य हि स्वशासनं पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि च क्रीडा भवति, मानस: प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोष:, ....."तेन रजसाऽवतार्यते।" -सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 12 28 ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् / गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थ निकारतः॥ यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽत्मानं सृजाम्यहम् // 7 // परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम् / धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे // 8 // -गीता अ०४/७-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org