________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'प्रत्याख्यानक्रिया' है। / / आत्मा किसी देव, भगवान् या गुरु की कृपा से अथवा किसी धर्मतीर्थ को स्वीकार करने मात्र से पापकर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। केवल त्याग-प्रत्याख्यान के विधि-विधानों की बातें करने मात्र से या कोरा आध्यात्मिक ज्ञान बघारने से भी व्यक्ति पाप कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। समस्त पापकर्मों के बन्धन को रोकने एवं मुक्त होने का अचूक उपाय है 'प्रत्याख्यानक्रिया। " 'प्रत्याख्यान' शब्द का सामान्य अर्थ किसी वस्तु का प्रतिषेध (निषेध) या त्याग करना है। परन्तु यह एक पारिभाषिक शब्द होने से अपने गर्भ में निम्नोक्त विशिष्ट अर्थों को लिये (1) त्याग करने का नियम (संकल्प = निश्चय) करना / (2) परित्याग करने की प्रतिज्ञा करना। (3) निन्द्यकर्मों से निवृत्ति करना। (4) अहिंसादि मूलगुणों एवं सामायिकादि उत्तरगुणों के आचरण में बाधक सिद्ध होने वाली प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग करना।' / प्रत्याख्यान के मुख्य दो भेद होते हैं---द्रव्यप्रत्याख्यान और भावप्रत्याख्यान / किसी द्रव्य का अविधिपूर्वक निरुद्देश्य छोड़ना या किसी द्रव्य के निमित्त प्रत्याख्यान करना द्रव्यप्रत्याख्यान है / आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से मूलगुण-उत्तरगुण में बाधक हिंसादि का मन-वचन-काया से यथाशक्ति त्याग करना भावप्रत्याख्यान है। भावप्रत्याख्यान के दो भेद हैं-अन्तःकरण से शुद्ध साधु या श्रावक का मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान / / 'प्रत्याख्यान' के साथ 'क्रिया' शब्द जुड़ जाने पर विशिष्ट अर्थ हो जाते हैं-(१) गुरु या गुरु जन से (समाज या परिवार में बड़े) या तीर्थकर भगवान की साक्षी से विधिपूर्वक त्याग या नियम स्वीकार करना / अथवा (2) हिंसा आदि निन्द्यकर्मों के त्याग या व्रत, नियम, तप का संकल्प करते समय मन में धारण करना, वचन से 'वोसिरे-बोसिरे' बोलना' और काया से तदनुकूल व्यवहार होना। (3) मूलोत्तरगुणों की साधना में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण, 1. (क) पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 507 (ख) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा. 1 पृ. 162 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org