________________ प्रत्याख्यान : चतुर्थ अध्ययन : प्राथमिक ] [ 133 आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा (गुरुसाक्षी से) तथा व्युत्सर्ग करना / प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार की भावप्रत्याख्यानक्रिया के सम्बन्ध में निरूपण है / ' - प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम अप्रत्याख्यानी आत्मा के पाप के द्वार खुले रहने के कारण सतत पापकर्म का बन्ध होना बताया है, और उसे असंयत, अविरत, पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान न करने वाला, एकान्त बाल, हिंसक आदि बताया है। अन्त में प्रत्याख्यानी आत्मा कौन और कैसे होता है ? इस पर प्रकाश डाला गया है। 1. (क) सूत्रकृतांग शी. वृत्ति पत्रांक 360 (ख) सूत्र कृ. नियुक्ति गा. 179,180 (ग) प्रावश्यक चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन 2 सूत्रकृतांग शो. वृत्ति पत्रांक 360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org