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________________ अंग आगमों में सर्वाधिक प्राचीन आचारांग का प्रथम श्र तस्कन्ध माना जाता है। इस सत्य को स्वीकार करने में किसी भी विद्वान को किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती। सूत्रकृतांग सूत्र और भगवती सूत्र के सम्बन्ध में यही समझा जाना चाहिए / स्थानांग सूत्र और समवायांग सूत्र में कुछ स्थल इस प्रकार के हो सकते हैं, जिनकी नवता और पुरातनता के सम्बन्ध में आगमों के विशिष्ट विद्वानों को गम्भीरतापूर्वक विचार करके निर्णय करना चाहिए / अंगबाह्य आगम: ___ अंग-बाह्य आगमों में उपांग, मूल, छेद आदि की परिगणना होती है / अंगवाह्य आगम गणधरों की रचना नहीं है अतः उनका काल निर्धारण जैसे अन्य आचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित किया जाता है, वैसे ही होना चाहिए। अंग बाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता आर्य श्याम हैं / अतएव आर्य श्याम का जो समय है, वही उनका रचना समय है / आर्य श्याम को वीर निर्वाण सम्बत् 335 में 'युग प्रधान' पद मिला और 376 तक वे युग प्रधान रहे। अतः प्रज्ञापना सूत्र की रचना का समय भी यही मानना उचित है। छेद सूत्रों में दशा श्रु तस्कन्ध, वृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने की थी। आचार्य भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व 357 के आस-पास निश्चित है। अतः उनके द्वारा रचित इन तीनों छेद सूत्रों का भी समय वही होना चाहिए। कुछ विद्वानों का मत है कि द्वितीय आचारांम की चार चूलाएँ और पंचम चूला निशीथ भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की रचना है। मूल सूत्रों में दशवकालिक की रचना आचार्य शय्यंभव ने की है। इसमें किसी भी विद्वान को विप्रतिपति नहीं रही। परन्तु इसका अर्थ यह होगा कि दशौकालिक की रचना द्वितीय आचारांग और निशीथ से पहले की माननी होगी। द्वितीय आचारांग का विषय और दशवकालिक का विषय लगभग एक जैसा ही है। भेद केवल है, तो संक्षेप और विस्तार का, गद्य और पद्य का एवं विषय की व्यवस्था का / तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव, भाषा तथा विषय प्रतिपादन की शैली दोनों की करीब-करीब समान ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के सम्बन्ध में दो मत उपलब्ध होते हैं-एक का कहना है कि उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक आचार्य की कृति नहीं, किन्तु संकलन है / दूसरा मत यह है कि उत्तराध्ययन सूत्र भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। कल्पसूत्र जिसकी पर्युषणा कल्प के रूप में वाचना की जाती है, वह भी चतुर्दश पूर्वी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। इस प्रकार अन्य अंग बाह्य आगमों के सम्बन्ध में भी कुछ तो काल निर्णय हो चुका है और कुछ होता जा रहा है। अंगों का क्रम : एकादश अंगों के क्रम में सर्वप्रथम आचारांग है। आचारांग को क्रम में सर्वप्रथम स्थान देना तर्क-संगत भी है और परम्परा प्राप्त भी है। क्योंकि संघ-व्यवस्था में सबसे पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है। आचार संहिता की मानव जीवन में प्राथमिकता रही है / अतः आचारांग को सर्वप्रथम स्थान देने में प्रथम हेतु है उसका विषय दूसरा हेतु यह है कि जहाँ-जहाँ अंगों के नाम आये हैं उनके क्रम की योजना के मूल में अथवा वृत्ति में आचांराग के नाम ही सबसे पहले आया है। आचारांग के बाद जो सूत्रकृतांग आदि नाम आये हैं, उनके क्रम की योजना किसने किस प्रकार की, इसकी चर्चा के हमारे पास उल्लेखनीय साधन नहीं हैं। इतना अवश्य है कि सचेलक एवं अचेलक दोनों परम्पराओं में अंगों का एक ही क्रम है। सूत्रकृतांग सूत्र में विचार पक्ष मुख्य है और आचार पक्ष गौण / जबकि आचारांग में आचार की मुख्यता है और विचार की गौणता / जैन परम्परा प्रारम्भ से ही एकान्त विचार पक्ष को और एकान्त आचार पक्ष को अस्वीकार करती रही है। विचार और आचार का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करना ही जैन परम्परा का मुख्य ध्येय रहा है / यद्यपि आचारांग में भी परमत का खण्डन सूक्ष्म रूप में अथवा बीज रूप में विद्यमान है / तथापि आचार की प्रबलता ही उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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