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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 25 से 32 बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक नियतिवाद-स्वरूप 28. आघायं पुण एगेसि उववना पुढो जिया / वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ॥१॥ 29. न त सयंकडं दुक्खं को अन्नकडं च णं / सुहं वा जइ वा दुक्खं सेहियं वा असेहियं // 2 // 30. न सयं कडं ण अन्नहिं वेदयन्ति पुढो जिया। संगतियं तं तहा तेसि इहमेगेसिमाहियं // 3 // 31. एवमेताई जता बाला पंडियमाणिणो / णिययाऽणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया / / 4 / / 32. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगभिया। एवं उठ्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया।। 5 / / 28. पुनः किन्हीं मतवादियों का कहना है कि (संसार में) सभी जीव पृथक्-पृथक् हैं, यह युक्ति से सिद्ध होता है / तथा वे (जीव पृथक्-पृथक् ही) प्लुख-दुःख भोगते हैं, अथवा अपने स्थान से अन्यत्र जाते हैं--अर्थात् ~~ एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाते हैं। 26-30. वह दुःख (जब) स्वयं द्वारा किया हुआ नहीं है, तो दूसरे का किया हुआ भी कैसे हो सकता है ? वह सुख या दुःख, चाहे सिद्धि से उत्पन्न हुआ हो अथवा सिद्धि के अभाव से उत्पन्न हुआ हो, जिसे जीव पृथक्-पृथक् भोगते हैं, वह न तो उनका स्वयं का किया हुआ है, और न दूसरे के द्वारा किया हुआ है, उनका वह (सुख या दुःख) सांगतिक नियतिकृत है ऐसा इस दार्शनिक जगत् में किन्हीं (नियतिवादियों) का कथन है।' 31. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से इन (नियतिवाद की) बातों को कहनेवाले (नियतिवादी) स्वयं अज्ञानी (वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ) होते हुए भी अपने आपको पण्डित मानते हैं, क्योंकि सुख-दुःख आदि) ___ 'मक्खलिपुत्तगोसालक' नियतिवाद का मूल पुरस्कर्ता और आजीवक सम्प्रदाय का प्रवर्तक था; परन्तु प्रस्तुत गाथाओं में कहीं भी गोशालक या आजीवक का नाम नहीं आया। हाँ, द्वितीय श्र तस्कन्ध में नियति और संगति शब्द का (सू० 663-65) उल्लेख है / उपासकदसांग के ७वें अध्ययन में गोशालक और उसके मत का सहालपुत्त और कुण्डकोलिय प्रकरण में स्पष्ट उल्लेख है कि गोशालक मतानुसार उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ आदि कुछ भी नहीं है / सब भाव सदा से नियत है। बौद्ध-ग्रन्थ दीघनिकाय, संयुक्त निकाय, आदि में तथा जैनागम व्याख्या प्रज्ञप्ति, स्थानांग, समवायांग, औपपातिक आदि में भी आजीवक मत-प्रवर्तक नियतिवादी गोशालक का (नामपूर्वक या नामरहित) वर्णन उपलब्ध है। ---जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 2, पृ० 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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