________________ 172 सूत्रहतांग-द्वितीय अध्ययन-बेतालीय घातक हों, उससे सतत बचना ही आत्मपरकता या आत्मपरायणता है। जो प्रवृत्ति आत्मा के लिए अकल्याणकर अहितकर हो, किन्तु दूसरों को उससे अर्थादिलाभ होता हो तो भी उसे न करे। परमाययट्ठिए-परमायत--मोक्ष (मोक्ष के लक्ष्य) में स्थित रहे। परम उत्कृष्ट आयत-दीर्घ हो, वह परमायत है, अर्थात् जो सदा काल शाश्वत स्थान है, श्रेष्ठ धाम है। साधु उस परमायत लक्ष्य में स्थित-परमायतस्थित तथा उस परमायत का अर्थी परमायतार्थिक-मोक्षाभिलाषी हो। अथवा अपने मन, वचन और काया को साधु मोक्षरूप लक्ष्य में ही स्थिर रखे, डांवाडोल न हो कि कभी तो मोक्ष को लक्ष्य बना लिया, कभी अर्थ-काम को या कभी किसी क्षुद्र पदार्थ को। शेष आचरण-सूत्र तो स्पष्ट हैं। इन 11 आचरणसूत्रों को हृदयंगम करके साधु को मोक्षयात्रा करनी चाहिए। अशरण भावना 158. वित्तं पसयो य णातयो, तं बाले सरणं ति मण्णती। एते मम तेसु वो अहं, नो ताणं सरणं च विजय // 16 // 156. अन्भागमितम्मि वा दुहे, अहवोवक्कमिए भवंतए। एगस्स गती य आगती, विदुमंता सरणं न मन्नतो // 17 // 160. सव्वे सयकम्मकप्पिया, अव्वत्तेण दुहेण पाणिणो / हिंडंति भयाउला सढा, जाति-जरा-मरणेहभिदुता // 18 // 158. अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञातिजनों को अपने शरणभूत (शरणदाता या रक्षक) समझता है कि ये मेरे हैं, मैं भी उनका हूँ। (किन्तु वस्तुतः ये सब उसके लिए) न तो त्राणरूप हैं आर न शरणरूप हैं। 156. दुःख आ पड़ने पर, अथवा उपक्रम (अकालमरण) के कारणों से आयु समाप्त होने पर या भवान्त (देहान्त) होने पर अकेले को जाना या आना होता है / अतः विद्वान् पुरुष धन, स्वजन आदि को अपना शरण नहीं मानता। 160. सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के कारण विभिन्न अवस्थाओं में व्यवस्थित-विभक्त हैं और सभी प्राणी अव्यक्त (अलक्षित) दुःख से दुःखी हैं / भय से व्याकुल शठ (अनेक दुष्कर्मों के कारण दुष्ट) जन जन्म, जरा और मरण से पीड़ित होकर (बार-बार संसार-चक्र में) भ्रमण करते हैं। 33 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 360 34 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 74 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org