________________ गाथा 401 से 406 और न ही अग्निस्पर्शवादियों को, क्योंकि दोनों ही अग्निकायिक जीवों का घात करते हैं। जीवघातकों का संसार में ही वास या भ्रमण हो सकता है, मोक्ष में नहीं / कर्मों को जलाने की शक्ति अग्नि में नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले तप में है / उसी की साधना से मोक्षप्राप्ति हो सकती हैं। इस कुशील आचार एवं विचार से, सुशील आत्मरक्षक विद्वान् साधु को बचना चाहिए, क्योंकि जीवहिंसाजनक इन कर्मकाण्डों से नरकादि गतियों में नाना दुःख उठाने पड़ते हैं / इस प्रकार गाथाद्वय (369-400) द्वारा शास्त्रकार ने सावधान किया है / अपरिक्ख दिह्र-बिना ही परीक्षा किये इस दर्शन (जलपर्श-अग्निहोत्रादि से मोक्षवाद) का स्वीकार किया है। कशील साधक की आचार भ्रष्टता 401. जे धम्मलद्धवि णिहाय भुजे, वियडेण साहटु य जो सिगाति / ___जो धावति लूसयतो व वत्थं, अहाहु से णागणियस्स दूरे // 21 // 402. कम्मं परिण्णाय दणंसि धीरे, विण्डेण जीवेज्ज य आदिमोक्खं / से बीय-कंदाति अभुजमाणे, विरते सिणाणादिसु इत्थियासु / / 22 // 403. जे मायरं पियरं च हेच्चा, गारं तहा पुत्त पसु धणं च / कुलाई जे धावति सादुगाई, अहाऽऽहु से सामणियस्स दूरे // 23 // 404. कुलाई जे धावति सादगाई, आवाति धम्म उदराणुगिद्ध। अहाहु से आयरियाण सतंसे, जे लावइजना असणस्स हेउं // 24 // 405. निक्खम्म दीणे परभोयणम्मि, मुहमंगलिओदरियाणुगिद्ध / नोवारगिद्ध व महापराहे, अदूर एवेहति घातमेव / / 25 / / 406. अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे। पासत्थयं चेव कुसीलयं च, निस्सारिए होति जहा पुलाए // 26 // 401. जो (स्वयूथिक साधुनामधारी) धर्म (श्रमण की औद्देशिक आदि दोषरहित धर्ममर्यादा) से प्राप्त आहार को भी संचय (अनेक दिनों तक रख) करके खाता है, तथा अचित्त जल से (अचित्त स्थान में भी) अंगों का संकोच करके जो स्नान करता है और जो अपने वस्त्र को (विभूषा के लिए) धोता है तथा (शृगार के लिए) छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को (फाड़कर) छोटा करता है, वह निर्गन्थ भाव (संयमशीलता) से दूर है, ऐसा (तीर्थंकरों और गणधरों ने कहा है। 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 158 से 161 6 सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पु०७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org