________________ सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन- कुशील परिभाषित 402. (अतः) धीर साधक जलस्नान में कर्मबन्ध जानकर आदि (संसार) से मोक्षपर्यन्त प्रासुक (अचित्त) जल से प्राण धारण करे, तथा वह बीज, कन्द आदि (अपरिणत-अप्रासूक आहार) का उपभोग न करे एवं स्नान आदि (शृगार-विभूषा कर्म) से तथा स्त्री आदि (समस्त मैथुनकर्म) से विरत रहे / 403. जो साधक माता और पिता को तथा घर, पुत्र, पशु और धन (आदि सब) को छोड़कर (प्रवजित होकर स्वादलोलुपतावश) स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में दौड़ता है, वह श्रमणभाव से दूर है, यह तीर्थंकरों ने कहा है। 404. उदर भरने में आसक्त जो साधक स्वादिष्ट भोजन (मिलने) वाले घरों में जाता है, तथा (वहाँ जाकर) धर्मकथा (धर्मोपदेश) करता है, तथा जो साधु भोजन के लोभ से अपने गुणों का बखान करता है, वह भी आचार्य या आयं के गुणों के शतांश के समान है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 405. जो व्यक्ति (घरबार, धन-धान्य आदि छोड़कर) साधुदीक्षा के लिए घर से निकलकर दूसरे (गृहस्थ) के भोजन (स्वादिष्ट आहार) के लिए दीन बन कर भाट की तरह मुखमांगलिक (चापलूस) हो जाता है, वह चावल के दानों में आसक्त बड़े सूअर की तरह उदरभरण में आसक्त हो कर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है / 406. अत्र और पान अथवा वस्त्र आदि इहलौकिक पदार्थ के लिए सेवक की तरह आहारादि दाता के अनुकूल प्रिय भाषण करता है (ठकुरसुहाती बात करता है) वह धीरे-धीरे पाश्वस्थभाव (आचारशैथिल्य) और कुशीलता (दूषितसंयमित्व) को प्राप्त हो जाता है। (और एक दिन) वह भूमि के समान निःसार-निःसत्त्व (संयमप्राण से रहित-थोथा) हो जाता है। विवेचन----कुशील साधक की आचारस्रष्टता-प्रस्तुत छह सूत्रगाथाओं (401 से 406 तक) द्वारा कुशील साधु की आचारभ्रष्टता का परिचय एवं सुशील धीर साधक को इससे बचने का कुछ स्पष्ट, निर्देश दिया गया है। आचारभ्रष्टता के विविध रूप-प्रस्तुत 6 गाथाओं में से पांच गाथाओं में कुशील साधक की आचारभ्रष्टता के दस रूप बताये गए हैं--(१) धर्मप्राप्त आहार का संचय करके उपभोग करना, (2) विभूषा की दृष्टि से प्रासुक जल से भी अंग संकोच करके भी स्नान करना, (3) विभूषा के लिए वस्त्र धोकर उजला बनाना. (4) शृगार के लिए छोटे वस्त्र को बड़ा और बडे को फाडकर छोटा बनाना(५) संयम ग्रहण करने के बाद मनोबलहीन एवं रसलोलुप बनकर स्वादिष्ट भोजन मिलने वाले घरों में बारबार जाना, (6) उदरभरण में आसक्त होकर स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होने वाले घरों में जाकर धर्मकथा करना, (7) स्वादिष्ट भोजन के लोभवश अपनी ओर आकर्षित करने हेतु अपने गुणों का अत्युक्तिपूर्वक बखान करना, (8) गृहस्थ से स्वादुभोजन लेने हेतु दीनता दिखलाना, (6) उदरपोषणासक्त बनकर मुखमांगलिकता करना, (10) अत्र, पान और अन्य वस्त्रादि आवश्यकताओं के लिए सेवक की तरह दाता के अनुरूप प्रिय-मधुर बोलना। आचारभ्रष्ट के विशेषण-ऐसे आचारभ्रष्ट साधक को प्रस्तुत गाथाओं में निर्ग्रन्थत्त्व (नग्नत्त्व) से दूर, श्रमणत्व से दूर, आचार्य या आर्य गुणों का शतांश, पाशस्थ या पार्श्वस्थ, कुशील एवं निःसार कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org