SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 454 सूत्रकृतांग-सोलहवां अध्ययन-गाहा भ्रमण स्वरुप 635. एस्थ वि समणे अणिस्सिते अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिच कोहं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च इच्चेवं जतो आदाणातो अपणो पदोसहेतु ततो तओ आदाणातो पुत्वं पडिविरते > विरते पाणाइवायाओ / दंते दविए वोसट्ठकाए समणे ति बच्चे। 635. जो साधु पूर्वोक्त विरति आदि गुणों से सम्पन्न है। उसे यहाँ (इस सूत्र में) कहे जाने वाले गुणों से भी सम्पन्न होना चाहिए / जो साधक अनिश्रित (शरीर आदि किसी भी पर-पदार्थ में आसक्त या आश्रित नहीं) है; अनिदान (अपने तप-संयम के फल के रूप में किसी भी प्रकार के इह-पारलौकिक सुख-भोगाकांक्षा से रहित) है, तथा कर्मबन्ध के कारणभूत प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन और परिग्रह (उपलक्षण से अदत्तादान) से रहित है, तथा क्रोध मान, माया, लोभ राग और द्वेष नहीं करता / इस प्रकार जिन-जिन कर्मबन्ध के आदानों-कारणों से इहलोक-परलोक में आत्मा की हानि होती है, तथा जो-जो आत्मा के लिए द्वेष के कारण हो, उन-उन कर्मबन्ध के कारणों से पहले से ही निवृत्त है, एवं जो दान्त, भव्य (द्रव्य) तथा शरीर के प्रति ममत्व से रहित है, उसे श्रमण कहना चाहिए। विवेचन-श्रमण का स्वरूप-प्रस्तुत सूत्रगाथा में यह बताया गया है कि 'किन विशिष्ट गुणों से सम्पन्न होने पर साधक को श्रमण कहा जा सकता है।' 'श्रमण' का निर्वचन और लक्षण-प्राकृतभाषा के 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैंश्रमण, शमन और समन / श्रमण का अर्थ है-जो मोक्ष (कर्ममोक्ष) के लिए स्वयं श्रम करता है, तपस्या करता है / शमन का अर्थ है-जो कषायों का उपशमन करता है, और समन का अर्थ है-जो प्राणिमात्र पर समभाव रखता है, अथवा शत्रु-मित्र पर जिसका मन सम-राग-द्वषरहित-है। इन अर्थों के प्रकाश में जब हम प्रस्तुत सूत्रोक्त श्रमण के लक्षण को कसते हैं तो वह पूर्णतः खरा उतरता है। श्रमण का पहला लक्षण 'अनिश्रित' बताया है, वह इसलिए कि श्रमण किसी देव आदि का आश्रित बनकर नहीं जीता, वह तप-संयम में स्वश्रम (पुरुषार्थ) के बल पर आगे बढ़ता है / श्रमण जो भो तप करता है, वह कर्मक्षय के उद्देश्य से ही करता है। निदान करने से कर्मक्षय नहीं होता, इसलिए श्रमण का लक्षण 'अनिदान' बताया गया है। श्रमण संयम और तप में जितना पराक्रम करता है. वह कर्मक्षय के लिए करता है, अत: प्राणातिपात आदि जिन-जिन से कर्मबन्ध होता है, उनका वह शमन (विरति) करता है, उनसे दूर रहता है / क्रोधादि कषायों एवं रागद्वेष आदि का शमन करता है। राग, द्वेष, मोह आदि के कारणों से दूर रहकर 'समन' समत्व में स्थित रहता है। निष्कर्ष यह है 'अणिस्सिए से लेकर 'वोसकाए' तक श्रमण के जितने गण या लक्षण बताये हैं. सब 'समण' शब्द के तीनों रूपों में आ जाते हैं। इसलिए उक्त गुणविशिष्ट साधक को 'श्रमण' कहा जाता है। . - - . -.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy