________________ * गाथा 634 से 635 453 व्युत्सृष्टकाय--जो शरीर को सजाने-संवारने, पुष्ट करने, शृगारित करने आदि सब प्रकार के शरीर-संस्कारों और शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर चुका हो।' माहन स्वरुप६३४. इति विरतसव्वपावकम्मे पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति मायामोस-मिच्छादसणसल्ले विरए समिते सहिते सदा जते णो कुज्झे गो माणी माहणे ति वच्चे। 634. पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में जो उपदेश दिया है, उसके अनुसार आचरण करने वाला जो साधक समस्त पापकर्मों से विरत है, जो किसी पर राग या द्वेष नहीं करता, जो कलह से दूर रहता है, किसी पर मिथ्या दोषारोपण नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता, दूसरों को निन्दा नहीं करता, जिसकी संयम में अरुचि (अरति) और असंयम में रुचि (रति) नहीं है, कपट-युक्त असत्य नहीं बोलता (दम्भ नहीं करता), अर्थात् अठारह हो पापस्थानों से विरत होता है, पाँच समितियों से युक्त और ज्ञानदर्शन-चारित्र से सम्पन्न है, सदैव षड्जीवनिकाय की यतना- रक्षा करने में तत्पर रहता है अथवा सदा इन्द्रियजयी होता है, किसी पर क्रोध नहीं करता, न अभिमान करता है, इन गुणों से सम्पन्न अनगार 'माहन' कहे जाने योग्य है। विवेचन-'माहन' का स्वरूप-किन गुणों से युक्त व्यक्ति को 'माहन' कहा जाना चाहिए ? इसका निरूपण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। 'माहन' का अर्थ और उक्त लक्षण--'माहन' पद मा+हन इन दो शब्दों से बनता है, अर्थ होता है'किसी भी प्राणी का हनन मत करो'; इस प्रकार का उपदेश जो दूसरों को देता है, अथवा जो स्वयं स-स्थावर, सूक्ष्म-बादर, किसी भी प्राणी की किसी प्रकार से हिंसा (हनन) नहीं करता / हिंसा दो प्रकार की होती है- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा / राग, द्वेष, कषाय, या असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रहवृत्ति आदि सब भावहिंसा के अन्तर्गत हैं / भावहिला द्रव्याहिंसा से बढ़कर भयंकर है / 'माहन' दोनों प्रकार की हिंसा से विरत होता है / माहन को यहाँ भगवान ने अठारह पापस्थानों से विरत बताया है, इसका अर्थ है, वह भावहिंसा के इन मूल कारणों से विरत रहता है। फिर माहन को पंच समिति एवं त्रिगुप्ति से युक्त बताया है, इसका तात्पर्य है, वह असत्य, चोरो आदि भावहिंसाओं से रक्षा करने वाली समितिगुप्ति से युक्त है। फिर सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयसम्पन्न माहन हिंसा निवारण के अमोघ उपायभूत मार्ग से सुशोभित है / हिंसा से सर्वथा निवृत्त माहन षड्जीवनिकाय की रक्षा के लिए सदैव यत्नवान होता ही है / क्रोध और अभिमान-ये दो भावहिंसा के प्रधान जनक हैं। माहन कोधादि भावहिंसाजनक कषायों से दूर रहता है / ये सब गुण 'माहन' के अर्थ के साथ सुसंगत हैं, इसलिए उक्त गुणों से सम्पन्न साधक को माहन कहना युक्तियुक्त है। 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 262 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org