________________ माथा 636 455 भिक्षु-स्वरूप 636. एत्थ वि विखू अणु-नए नावणए णामए दंते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरुवरूवे __ परीसहोवसग्गे अज्झरपजोगसुद्धादाणे उविट्टिते ठितप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खु त्ति वच्चे। 636. 'माहन' और 'श्रमण' की योग्यता के लिए जितने गुण पूर्वसूत्रों में वणित हैं, वे सभी यहाँ वणित भिक्ष में होने आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त ये विशिष्ट गुण भी भिक्षु में होने चाहिए--- वह अनुन्नत (निरभिमान) हो, (गुरु आदि के प्रति) विनीत हो, (अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति विनयशील हो), किन्तु भाव से अवनत (दीन मन वाला) न हो, नामक (विनय से अष्ट प्रकार से अपनी आत्मा को नमाने वाला, अथवा सबके प्रति नम्र व्यवहार वाला) हो, दान्त हो, भव्य हो, कायममत्वरहित हो, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों का समभावपूर्वक सामना करके सहने वाला हो, अध्यात्मयोग (धर्मध्यान) से जिसका चारित्र (आदान) शुद्ध हो, जो सच्चारित्र-पालन में उद्यत-उपस्थित हो, जो स्थितात्मा (स्थितप्रज्ञ, अथवा जिसकी आत्मा अपने शुद्ध भाव में स्थित है, या मोक्षमार्ग में स्थिरचित्त) हो तथा संसार की असारता जानकर जो परदत्तभोजी (गृहस्थ द्वारा प्रदत्त आहार से निर्वाह करने वाला) है; उस साधु को 'भिक्षु' कहना चाहिए। विवेचन-भिक्षु का स्वरूप- प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु के विशिष्ट गुणों का निरूपण करते हुए उसका स्वरूप बताया गया है। भिक्षु का अर्थ और सूत्रोक्त लक्षण-भिक्षु का सामान्य अर्थ होता है-भिक्षाजीवी / परन्तु त्यागी भिक्षु न तो भीख मांगने वाला होता है, न ही पेशेवर भिखारी, और न ही भिक्षा से पेट पालकर अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाकर, आलसी एवं निकम्मा बनकर पड़े रहना उसका उद्देश्य होता है / आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार उसको भिक्षा न तो पौरुषघ्नी होती है और न ही आजीविका, वह सर्वसम्पत्करी होती है / अर्थात्-भिक्षु अहर्निश तप-संयम में, स्वपर-कल्याण में अथवा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की साधना में पुरुषार्थ के लिए भिक्षा ग्रहण करता है। इस विशिष्ट अर्थ के प्रकाश में जब हम प्रस्तुत सूत्रोक्त भिक्षु के विशिष्ट गुणात्मक स्वरूप की समीक्षा करते हैं तो भिक्षु के लिए बताए हुए सभी विशिष्ट गुण यथार्थ सिद्ध होते हैं / निर्ग्रन्थ भिक्षु का एक विशिष्ट गुण है-'परदत्तमोजो' / इस गुण का रहस्य यह है कि भिक्षु अहिंसा की दृष्टि से न तो स्वयं भोजन पकाता या पकवाता है, न ही अपरिग्रह की दृष्टि से भोजन का संग्रह करता है, न भोजन खरीदता या खरीदवाता है, न खरीदा हुआ लेता है। इसी प्रकार अचौर्य की दृष्टि से गृहस्थ के यहाँ बने हुए भोजन को बिना पूछे उठाकर न लाता या ले लेता है, न छीनकर, चुराकर या लूटकर लेता है। वह निरामिषभोजी गृहस्थवर्ग के यहाँ उसके स्वयं के लिए बनाये हुए आहार में से भिक्षा के नियमानुसार गृहस्थ द्वारा प्रसन्नतापूर्वक दिया गया थोड़ा सा एषणीय, कल्पनीय और अचित्त पदार्थ लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org