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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 724 ] [ 111 उन-उन कर्मों के कारण वृक्षों में पाते हैं और वृक्षयोनिक वृक्षों में भूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल) शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं। वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के (सचित्त शरीर में से रस खींच कर उनके) शरीर को अचित्त कर देते हैं। फिर प्रासुक (परिविध्वस्त) हुए उनके शरीरों को पचा कर अपने समान रूप में परिणत कर डालते हैं। उन वृक्षयोनिक मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज रूप जीवों के और भी शरीर होते हैं, जो नाना वर्ण, गन्ध, रस, एवं स्पर्श वाले तथा नाना प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं। ये जीव कर्मोदयवश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, यह श्रीतीर्थकरदेव ने कहा है / 724- (1) अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोगिया रक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थक्वकमा रुक्खजोणिएहि रोहिं अज्झोरुहिताते विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेति पुढवि. सरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झोरहाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं। (2) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता प्रज्झोरहजोणिया' अज्भोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु प्रजभोरुहेसु अज्झोरुहत्ताए विउति, ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, प्रवरे वि य णं तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरुहाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खाय। (3) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगतिया सत्ता अज्झोरुहजोणिया अज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा अज्झोरुहजोणिएसु प्रज्झोरहेसु अझोरुहिताए विउटैंति, ते जीवा तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहाति, [ते जीवा प्राहारैति] पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरे वि य णं तेसि अज्झोरुहजोणियाणं [अज्झोरुहाणं] सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं / (4) प्रहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता प्रज्झोरहजोणिया प्रज्झोरुहसंभवा जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा प्रज्झोरहजोणिएसु अज्झोरुहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटति, ते जीवा तेसि अज्झोरुहजोणियाणं अज्झोरहाणं सिणेहमाहारेंति जाव अवरे वि य णं तेसिं अज्झोरुहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरोरा णाणावण्णा जाव मक्खायं / 724--(1) श्रीतीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के अन्य भेद भी बताए हैं। इस वनस्पतिकाय जगत् में कई वृक्षयोनिक जीव वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते एवं बढ़ते हैं। इस प्रकार उसी में उत्पन्न, स्थित और संवधित होने वाले वे वृक्षयोनिक जीव कर्मोदयवश तथा कर्म के कारण ही बक्षों में आकर उन वक्षयोनिक वक्षों में 'अध्यारूह' वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे (अध्यारूह) जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के शरीर का भी प्राहार करते हैं। यहाँ तक कि वे उन्हें अचित्त, प्रासुक एवं 1. (क) अज्झारोहा-रुक्खस्स उरि अन्नो रुक्खो......"चूणि / (ख) वृक्षेषु उपर्यु परि अध्यारोहन्तीत्यध्यारुहाः --शीलाक वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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