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________________ 66 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध (चिकित्सक के परामर्शानुसार किसी उपाय से) उस शल्य को नष्ट करवाता है, प्रत्युत निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है, तथा उसकी वेदना से अंदर ही अंदर पीड़ित होता हुआ उसे सहता रहता है, इसी प्रकार मायी व्यक्ति भी माया (कपट) करके उस (अन्तर में गड़े हुए) मायाशल्य को निन्दा के भय से स्वयं (गुरुजनों के समक्ष) आलोचना नहीं करता, न उसका प्रतिक्रमण करता है, न (प्रात्मसाक्षी से) निन्दा करता है, न (गुरुजन समक्ष) उसकी गर्दी करता है, (अर्थात्, उक्त मायाशल्य को न तो स्वयं निकालता है, और न दूसरों से निकलवाता है।) न वह उस (मायाशल्य) को प्रायश्चित्त आदि उपायों से तोड़ता (मिटाता) है, और न उसकी शुद्धि करता है, उसे पुन: न करने के लिए भी उद्यत नहीं होता, तथा उस पापकर्म के अनुरूप यथायोग्य तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार मायी इस लोक में (मायी रूप में) प्रख्यात हो जाता है. (इसलिए) अविश्वसनीय हो जाता है; (अतिमायी होने से) परलोक में (अधम यातना स्थानों-नरक तिर्यञ्चगतियों में) भी पुनः पुन: जन्म-मरण करता रहता है। वह (नाना प्रपञ्चों से वंचना करके) दूसरे की निन्दा करता है, दूसरे से घृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, निश्चिन्त हो कर बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है, असत् कार्यों से निवृत्त नहीं होता, प्राणियों को दण्ड दे कर भी उसे स्वीकारता नहीं, छिपाता है (दोष ढंकता है)। ऐसा मायावी शुभ लेश्याओं को अंगीकार भी नहीं करता। ऐसा मायी पुरुष पूर्वोक्त प्रकार की माया (कपट) युक्त क्रियाओं के कारण पाप (सावद्य) कर्म का बन्ध करता है / इसीलिए ग्यारहवें क्रियास्थान को मायाप्रत्ययिक कहा गया है। विवेचन--ग्यारहवाँ क्रियास्थान : मायाप्रत्ययिक- स्वरूप, मायाप्रक्रिया और दुष्परिणामप्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण करते हुए मुख्यतया चार तथ्य प्रस्तुत करते हैं (1) मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का मूलाधार-मायाचारियों द्वारा अपनाई जाने वाली माया की विविध प्रक्रियाएं। (2) मायाचारी की प्रकृति का सोदाहरण वर्णन-मायाशल्य को अन्त तक अन्तर से न निकालने का स्वभाव / (3) मायाप्रधान क्रिया का इहलौकिक एवं पारलौकिक दुष्फल-कुगतियों में पुनः पुनः गमनागमन, एवं कुटिल दुर्वृत्तियों से अन्त तक पिण्ड न छूटना। (4) मायिक क्रियाओं के कारण पापकर्म का बन्ध एवं मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान नाम की सार्थकता।' बारहवाँ क्रियास्थान-लोभप्रत्ययिक : अधिकारी, प्रक्रिया और परिणाम ७०६--ग्रहावरे बारसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए ति पाहिज्जति, तंजहा-जे इमे भवति प्रारणिया पावसहिया गामंतिया कण्हुईराहस्सिया, णो बहुसंजया, णो बहुपडिविरया सध्वपाणभूत-जीव-सत्तेहि, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विउंजंति-अहं ण हतब्बो अन्ने हंतवा. प्रहं ण 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 313-314 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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