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________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 866 ] [211 करके उस प्रत्याख्यान की कहाँ-कहाँ किस प्रकार सविषयता एवं सफलता है, उसका प्रतिपादन किया गया है। (1) कई श्रमणोपासक पांच अणुव्रतों और प्रतिपूर्ण पौषध का पालन करते हैं। वे समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके देवलोक आदि सुगतियों में जाते हैं / त्रसवध-प्रत्याख्यानी श्रमणोपासक का उनके सम्बन्ध में किया गया हिंसा विषयक प्रत्याख्यान इहलोक और परलोक दोनों जगह सफल होता है, क्योंकि इस लोक में वे त्रस हैं ही, परलोक में भी त्रस होते हैं। (2) कई श्रमणोपासक अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा करके पांचों आश्रवों का सर्वथा प्रत्याख्यान करते हैं, वे भी मर कर सुगति में जाते हैं, दोनों जगह त्रस होने के नाते त्रसवध-प्रत्याख्यानी श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (3) कई मनुष्य महारम्भी-महापरिग्रही, तथा पांचों आश्रवों से अविरत होते हैं। वे भी मरकर नरक-तिर्यंच आदि दुर्गतियों में जाते हैं। दोनों जगह त्रस होने के नाते श्रमणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (4) कई मनुष्य निरारम्भी, निष्परिग्रही तथा पंचमहाव्रती होते हैं, वे भी यहाँ से आयुष्य छूटने पर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अतः दोनों जगह त्रस होने के कारण श्रमणोपासक का सवधप्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। [5] कई मनुष्य अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही तथा देश विरत श्रावक होते हैं। वे भी मरने के बाद स्व-कर्मानुसार सुगतिगामी होते हैं / अतः उभयत्र त्रस होने के कारण श्रमणोपासक का सवधप्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (6) कई मनुष्य आरण्यक, पाश्रमवासी (कुटीवासी), ग्रामनिमन्त्रिक या राहस्यिक (एका. न्तवासी या रहस्यज्ञ) होते हैं, वे अज्ञानतप आदि के कारण मरकर या तो किल्विषिक असुरयोनि में उत्पन्न होते हैं या मूक, अन्ध या बधिर होते हैं, या अजावत् मूक पशु होते हैं। तीनों ही अवस्थाओं में वे त्रस ही रहते हैं। इस कारण श्रमणोपासक का प्रस-वध प्रत्याख्यान उनके विषय में सफल होता है। (7) कई प्राणी दीर्घायु होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब स प्राणी एवं महाकाय तथा दीर्घायु बनते हैं तब उभयत्र त्रस होने के नाते श्रमणोपासक का सवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थक-सविषय होता है। (8) कई प्राणी समायुष्क होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब स होते हैं, तब उभयत्र अस होने के कारण श्रणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थकसविषय होता है। (8) कई प्राणी अल्पायु होते हैं, वे भी मरकर परलोक में जब त्रस होते हैं, तब भी उभयत्र त्रस होने से श्रमणोपासक का त्रसवध-प्रत्याख्यान उनके विषय में सार्थक-सविषयक होता है / (10) कई श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, जो न तो पर्वतिथियों में परिपूर्ण पौषध कर सकते हैं, न ही संल्लेखना-संथारा की आराधना, बे श्रावक का सामाजिक, देशावकाशिक एवं दिशापरिमाण व्रत अंगीकार करके पूर्वादि दिशाओं में निर्धारित भूमि-मर्यादा से बाहर के समस्त त्रस-स्थावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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