________________ 212] [सूत्रकृतगांसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्राणियों के वध से निवृत्त हो जाते हैं। ऐसे श्रमणोपासक त्रसवध का तो सर्वत्र और स्थावर-वध का मर्यादित भूमि के बाहर सर्वथा प्रत्याख्यान करते हैं, किन्तु मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर जीवों का सार्थक दण्ड खुला रख कर उसके निरर्थक दण्ड का प्रत्याख्यान करते हैं, उनका युक्त प्रत्याख्यान निम्नोक्त 6 प्रकार के प्राणियों के विषय में सार्थक-सविषयक होता है-- (1) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, और मरकर उसी मर्यादित भूमि के अन्दर वसरूप में उत्पन्न होते हैं। (2) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, किन्तु मरकर उसी मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं। (3) जो मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस होते हैं, किन्तु मरकर उस मर्यादित भूमि के बाहर अस या स्थावर के रूप में उत्पन्न होते हैं। (4) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, किन्तु उसी मर्यादित भूमि के अन्दर मरकर त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (5) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, और मरकर भी पुनः उसी मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावरप्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (6) जो मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर होते हैं, किन्तु मरकर मर्यादित भूमि के बाहर त्रस या स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (7) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस और स्थावर प्राणी होते हैं, किन्तु मर कर मर्यादित भूमि के अन्दर सप्राणियों में उत्पन्न होते हैं। (8) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस और स्थावर प्राणी होते हैं, किन्तु मर कर मर्यादित भूमि के अन्दर स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / (8) जो मर्यादित भूमि के बाहर त्रस अथवा स्थावर प्राणी होते हैं, और मर कर पुनः उसी मर्यादित भूमि के अन्दर त्रस अथवा स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं / प्रतिवाद का निष्कर्ष-(१) श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान के इतने (पूर्वोक्त) सब प्राणी विषय होते हुए भी उसे निविषय कहना न्यायसंगत नहीं है, (2) तीन काल में भी सबके सब त्रस एक साथ नष्ट होकर स्थावर नहीं होते, और न ही स्थावर प्रारणी तीन काल में कभी एक साथ नष्ट हो कर त्रस होते हैं, (3) त्रस और स्थावर प्राणियों का सर्वथा उच्छेद कदापि नहीं होता।' इन सब पहलुओं से श्री गौतमस्वामी ने उदक निर्ग्रन्थ के द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान पर किये गए निविषयता के आक्षेप का सांगोपांग निराकरण करके उन्हें निरुत्तर करके स्वसिद्धान्त मानने को बाध्य कर दिया है।' 1. सूत्रकृतांग शीलांक बत्ति पत्रांक 420 से 424 तक का सारांश / 2. "एवं सो उदओ अणगारो जाधे भगवता गोतमेण बहूहि हेतुहि निरुत्तो कतो....।" -सूत्र कृ. चू. (मू. पा. टि.) पृ. 254 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org