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________________ कियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 711 ] / 85 प्राप्त करनेवाले भिक्षु को प्रतिपादित की गई हैं, वे सब अर्हताएँ धर्मपक्षीय साधक में होनी आवश्यक है / यहाँ तक कि उसके समस्त कषाय उपशान्त होते हैं, तथा वह समस्त इन्द्रियविषयों की प्रासक्ति से निवृत्त होता है। धर्मपक्ष-स्थान का स्वरूप-यह पक्ष पूर्वोक्त अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान से ठीक विपरीत है। अर्थात्---यह स्थान आर्य, केवल, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्वाणमार्ग, निर्याणमार्ग, सर्वदुःख-प्रहीणमार्ग है / एकान्त सम्यक् है, श्रेष्ठ है / ' तृतीयस्थान : मिश्रपक्ष का अधिकारी एवं स्वरूप-- ७१२--प्रहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जति–जे इमे भवंति प्रारणिया गामणियंतिया कण्हुइराहस्प्तिता जाव ततो विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तभूयत्ताए पच्चायंति, एस ठाणे प्रणारिए अकेवले जाव' असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छ असाहू, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिते / ७१२-इसके पश्चात् तीसरे स्थान मिश्रपक्ष का विकल्प (विभंग) इस प्रकार कहा जाता है—(इसके अधिकारी वे हैं) जो ये पारण्यक (वन में रहने वाले तापस) हैं, यह जो ग्राम के निकट झोपड़ी या कुटिया बना कर रहते हैं, अथवा किसी गुप्त (रहस्यमय) क्रिया का अनुष्ठान करते हैं, या एकान्त में रहते हैं, यावत् (वे पूर्वोक्त प्राचार-विहार वाले शब्दादि काम-भोगों में आसक्त होकर कुछ वर्षों तक उन विषयभोगों का उपभोग करके आसुरी किल्विषी योनि में उत्पन्न होते हैं) फिर वहाँ से देह छोड़कर इस लोक में बकरे की तरह मूक के रूप में या जन्मान्ध (द्रव्य से अन्ध एवं से अज्ञानान्ध) के रूप में आते (जन्म लेते) हैं / (वे जिस मार्ग का प्राश्रय लेते हैं, उसे 'मिश्रस्थान' कहते हैं।) यह स्थान अनार्य (आर्यपुरुषों द्वारा अनाचरणीय) है, केवलज्ञान-प्राप्ति से रहित है, यहाँ तक कि (पूर्वोक्त पाठानसार) यह समस्त द:खों से मुक्त करानेवाला मार्ग नहीं है। यह स्थान एकान्त मिथ्या और बुरा (असाधु) है। इस प्रकार यह तीसरे मिश्रस्थान का विचार (विभंग) कहा गया है। विवेचन-तृतीय स्थानः मिश्रपक्ष का अधिकारी एवं स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में मिश्रित पक्ष के स्वरूप तथा उसके अधिकारी का निरूपण किया गया है / मिश्रपक्ष- इस स्थान को मिश्रपक्ष इसलिए कहा गया है कि इसमें न्यूनाधिक रूप में पुण्य और पाप दोनों रहते हैं। इस पक्ष में पाप की अधिकता, और पुण्य की यत्किञ्चित् स्वल्प मात्रा रहती है / वृत्तिकार कहते हैं कि यद्यपि इसके अधिकारी मिथ्यादृष्टि होते हैं, और वे अपनी दृष्टि के अनुसार हिंसा आदि से निवृत्ति करते हैं, तथापि मिथ्यात्व युक्त होने- अशुद्ध होने से ऊपर भूमि पर वर्षा की तरह या नये-नये पित्तप्रकोप में शर्करा-मिश्रित दुग्धपान की तरह विवक्षित अर्थ (मोक्षार्थ) 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 326 का सारांश 2. यहाँ 'जाव' शब्द से ‘णोबहुसंजया' से 'उववत्तारो भवंति' तक का सारा पाठ सूत्र 706 के अनुसार समझें। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अकेवले' से लेकर 'असव्वदुक्खपहीणमग्गे' तक का पाठ सत्र 710 के अनुसार समझे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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