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________________ 46 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय काल को त्रिकाल त्रिलोकव्यापी तथा विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का, यहाँ तक कि प्रत्येक कार्य, सुख-दुःखादि का कारण मानने वाले कालवादियों का खण्डन करते हुए नियतिवादी कहते हैं-एक ही काल में दो पुरुषों द्वारा किये जाने वाले एक सरीखे कार्य में एक को सफलता और दूसरे को असफलता क्यों मिलती है ? एक ही काल में एक को सुख और एक को दुःख क्यों मिलता है ? अतः नियति को माने बिना कोई चारा नहीं। स्वभाववादी सारे संसार को स्वभाव से निष्पन्न मानते हैं,वे कहते हैं-मिट्टी का ही घड़ा बनने का स्वभाव है, कपड़ा बनने का नहीं, सूत का ही कपड़ा बनने का स्वभाव है, घड़ा नहीं / इसतरह प्रति नियत कार्य-कारण भाव स्वभाव के बिना वन नहीं सकता। सभी पदार्थ स्वतः परिणमन स्वभाव के कारण ही उत्पत्र होते हैं, इसमें नियति की क्या आवश्यकता है ? इन युक्तियों का खण्डन करते हुए नियतिवादी कहते हैं-भिन्न-भित्र प्राणियों का, इतना ही नहीं एक ही जाति के अथवा एक ही माता के उदर से जन्मे दो प्राणियों का पृथक-पृथक स्वभाव नियत करने का काम नियति के बिना हो नहीं सकता। नियतिवाद ही इस प्रकार का यथार्थ समाधान कर सकता है। फिर स्वभाव पुरुष से भित्र न होने के कारण वह सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता। ईश्वर का या पुरुष का (स्वकृत) पुरुषार्थ भी सुख-दुःख कर्ता या जगत् के सभी पदार्थों का कारण नहीं हो सकता। एक सरीखा पुरुषार्थ करने पर भी दो व्यक्तियों का कार्य एक-सा या सफल क्यों नहीं हो पाता? अतः इसमें भी नियति का ही साथ है। ईश्वर-कृतक पदार्थ मानने पर तो अनेक आपत्तियां आती हैं / अब रहा कर्म / कर्मवादी कहते हैं-किसान, वणिक आदि का एक सरीखा उद्योग होने पर भी उनके फल में विभित्रता या फल की अप्राप्ति पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म के प्रभाव को सूचित करती है। इसका प्रतिवाद नियतिवादी यों करते हैं--"कर्म पुरुष से भित्र नहीं होता, वह अभित्र होता है, ऐसी स्थिति में वह पुरुष रूप हो जायगा और पुरुष पूर्वोक्त युक्तियों से सुखदुःखादि का कारण नहीं हो सकता / नियति ही एकमात्र ऐसी है, जो जगत् के समस्त पदार्थों की कारण हो सकती है। इस प्रकार स एकान्त नियतिवाद का खण्डन करते हुए शास्त्रकार सुत्र गाथा 31 द्वारा कहते हैं-- 'णिययाऽणिययं संतं अजाणता अबुद्धिया-इसका आशय यह है कि वे मिथ्या प्ररूपणा करते हुए अज्ञ(हठाग्रही) एवं पण्डितमानी नियतिवादी एकान्त-नियतिवाद को पकड़ हुए हैं। वे इस बात को नहीं जानते कि संसार में सुख-दुःख आदि सभी नियतिकृत नहीं होते, कुछ सुख-दुःख आदि नियतिकृत होते हैं, क्योकि उन-उन 6. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 30 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या प०१४३-५ के आधार पर (ग) काल: पचति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः / काल: सुप्तेषु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ।।-हारोत सं० 'यदिन्द्रियाणां नियतः प्रचारः, प्रियाप्रियत्वं विषयेषु चैव / सुयुज्यते यज्जरयाऽऽतिभिश्च, कस्तत्र यत्नौ ? न न स स्वभावः // ' (च) 'कः कण्टकानां प्रकरोति तण्यं, विचित्रभाव मृगपक्षिणां च / स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति, कुतः प्रयत्नः ?' -बुद्ध चरित -सूत्र० टीका में उदधृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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