________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 28 से 32 सुख-दुःखों के कारणरूप कर्म का अबाधाकाल समाप्त होने पर अवश्य उदय होता ही है, जैसे निकाचित कर्म का। परन्तु कई सुख-दुःख अनियत (नियतिकृत नहीं) होते हैं। वे पुरुष के उद्योग, काल, स्वभाव और कर्म द्वारा किये हुए होते हैं / ऐसी स्थिति में अकेला नियति को कारण मानना अज्ञान है। आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति तर्क' में बताया है कि काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुपार्थ ये पंच कारण समवाय है / इसके सम्बन्ध में एकान्त कथन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष कथन ही सम्यक्त्व है। जैन-दर्शन सुख-दुःख आदि को कथंचित् पुरुषकृत उद्योग साध्य भी मानता है, क्योंकि क्रिया से फलोत्पत्ति होती है और क्रिया उद्योगाधीन हैं। कहीं उद्योग की विभिन्त्रता फल की भिन्नता का कारण होती है, कहीं दो व्यक्तियों का एक सरीखा उद्योग होने पर भी किसी को फल नहीं मिलता, वह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है / इस प्रकार कथंचित् अदृष्ट (कर्म) भी सुखादि का कारण है / जैसे-आम, कटहल, जामुन, अमरुद आदि वृक्षों में विशिष्ट काल (समय) आने पर ही फल की उत्पत्ति होती है, सर्वथा नहीं। एक ही समय में विभित्र प्रकार की मिट्टियों में बोये हुए बीज में से एक में अत्रादि उग जाता है, दूसरी ऊपर मिट्टी में नहीं ऊगते इस कारण स्वभाव को भी कथंचित् कारण माना जाता है। आत्मा को उपयोग रूप तथा असंख्य-प्रदेशी होना तथा पुद्गलों का मूर्त होना और धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि का अमूर्त एवं गति-स्थिति में सहायक होना आदि सब स्वभावकृत है। इस प्रकार काल, स्वभाव, नियति अष्ट (कर्म) और पुरुषकृत पुरुषार्थ ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य या सुखादि में परस्पर-सापेक्ष सिद्ध होते हैं, इस सत्य तथ्य को मानकर एकान्त रूप से सिर्फ नियति को मानना दोषयुक्त है, मिथ्या है। कठिन शब्दों को व्याख्या--'लुप्पंति ठाणउ' अपनी आयु से अलग प्रच्युत हो जाते हैं, एक स्थान (शरीर) को छोड़कर दूसरे स्थान (शरीर या भव) में संक्रमण करते जाते हैं / सेहियं-असेहियं-ये दोनों विशेषण सुख के हैं / एक सुख तो सैद्धिक है और दूसरा है असैद्धिक / सिद्धि यानि मुक्ति में जो सुख उत्पत्र हो, उसे सैद्धिक और इसके विपरीत जो असिद्धि यानि संसार में सातावेदनीय के उदय से जो सुख प्राप्त होता है उसे असैद्धिक सुख कहते हैं। अथवा सुख और दुःख, ये दोनों ही सैद्धिक-असैद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं। पुष्पमाला, चन्दन और वनिता आदि की उपभोग क्रिया रूप सिद्धि से होने वाला सुख सेद्धिक तथा चाबुक की मार, गर्म लोहे आदि से दागने आदि सिद्धि से होने वाला दुःख भी सैद्धिक है / आकस्मिक अप्रत्याशित बाह्यनिमित्त से हृदय में उत्पत्र होने वाला आन्तरिक आनन्द रूप सुख असैद्धिक सुख है, तथा ज्वर, मस्तक पीड़ा, उदर शूल आदि दुःख, जो अंग से उत्पत्र होते हैं, वे असैद्धिक दुःख हैं। पासत्था-- इस शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं- 'पाश्वस्था' और 'पाशस्था' / पाश्वस्थ का अर्थ होता है-पास नजदीक में रहने वाले अथवा युक्ति समूह से बाहर या परलोक की क्रिया के किनारे ठहरने वाले अथवा कारणचतुष्टय (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 27 से 32 तक (ख) 'कालो सहाव-नियई..........।' -सन्मतितर्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org