________________ सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन--समय भावना जगती है, फलतः उसके मन में वैरभाव बढ़ता है। इसी प्रकार हिंसक के मन में एक ओर अपने शरीर, परिवार, धन या अपने माने हुए सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति राग, मोह, ममत्व आदि जागते हैं, तथा दूसरी ओर हिंस्य प्राणी के प्रति जागते हैं-द्वेष, घृणा, रता, रोष आदि / ऐसी स्थिति में ये राग और द्वष ही कर्मबन्ध के कारण हैं / उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है- "राग और द्वेष ये दोनों कर्म के बीज है' कर्मबन्ध के मूल कारण है। जब हिंसा की, कराई या अनुमोदित की जाती है, तव राग, द्वेष की उत्पत्ति अवश्य होती है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है-रागद्वेषादि का मन में प्रादुर्भाव न होना ही अहिंसा है. इसके विपरीत रागद्वषादि का मन-वचन-काया से प्रादुर्भाव होना ही हिंसा है / यही जिनागम का सार है।, एक बार हिस्य प्राणियों के साथ वैर बंध जाने के बाद जन्म-जन्मान्तर तक वह बैर-परम्परा चलती रहती है। बैर-परम्परा की वद्धि के साथ कर्मबन्धन में भी वृद्धि होती जाती है। क्योंकि पूर्वबद्ध अशुभकर्मों का क्षय नहीं हो पाता, और नये अशुभकर्म बंधते जाते हैं।" ___"वेर वडढेति अप्पणो' का दूसरा अर्थ-इस पंक्ति का एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि दूसरे प्राणियों का प्राणघात करने, कराने और उसका अनुमोदन करने वाला व्यक्ति दूसरे प्राणियों की हिसा तो कर या करा सके अथवा नहीं, राग-द्वेष या कषायवश वह अपनी भावहिंसा तो कर ही लेता है जिसके फलस्वरूप अपनी आत्मा को कर्मवन्धन के चक्र में डाल देता है। ऐसी स्थिति में अपनी आत्मा ही अपना शत्रु वनकर वैर-परम्परा को बढ़ा लेता है / असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य आदि भी बन्धन के कारण यहाँ प्राणातिपात शब्द उपलक्षण रूप है,१६ इसलिए मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन (अब्रह्मचर्य) आदि भी अविरति के अन्तर्गत होने से कर्मबन्ध के कारण समझ लेना चाहिए, भले ही इस सम्बन्ध में यहाँ साक्षात् रूप से न कहा गया हो, क्योंकि मृषावाद आदि का सेवन करते समय भी रागद्वेषादिवश आत्मा के शुभ या शुद्ध परिणामों की हिंसा अथवा आत्मा के भावप्राणों की हिंसा अवश्य होती है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में असत्य आदि सभी पापात्रवों को हिंसा में समाविष्ट करते हुए कहा गया है- आत्मा के परिणामों की हिंसा के हेतु होने से मृषावाद (असत्य) आदि सभी पापास्रव एक तरह से पावाद आदि का कथन तो केवल शिष्यो को स्पष्ट बोध करने के लिए किया गया है / 21 18 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृष्ठ-४०, 43 / / उत्तराध्ययन अ० 32/7 -'रागो य दोसो विय कम्मवीयं अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति / तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।--पुरुषार्थ सि० 44 श्लो. 16 जो दूसरे का भी बोध कराता है, उसे उपलक्षण कहते हैं। -सम्पादक 20 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 13 (ख) ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख; ये चार भावप्राण हैं / 21 आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात सर्वमेव हिंसेति / अनतवचनादि केबलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।----पुरुषार्थ 42 श्लो० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org