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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 13 प्राणातिपात क्या और कैसे ?... हिसाबा जैनशारत्र प्रसिद्ध पर्यायवाची नाम प्राणातिपात' है / हिंसा का अर्थ सहसा साधारण एवं जैनेतर जनता किसी स्थल प्राणी को जान से मार देना, प्रायः इतना ही समझती है। इसलिए विशेष अर्थ का द्योतक प्राणातिपात शब्द रखा है। प्राण भी केवल श्वासोच्छवास / इसके अतिरिक्त : प्राण और मिला कर 10 बताए हैं। इसलिए प्राणातिपात का लक्षण दिया गया है- 'पाँच इन्द्रियों के बल मन, वचन. कायबल, उच्छवास-निश्वासबल एवं आयुष्यबल-ये 10 बल प्राण हैं। इनका वियोग करना, इनमें से किसी, एक प्राण को नष्ट करना भी है हुंचाना या विरोध कर देना प्राणातिपात (हिंसा) है / इसलिए इस गाथा में कहा गया है - 'सयं तिवायए पाणे / 13 परिग्रहासक्त व्यक्ति दूसरे के प्राणों का घात स्वयं ही नहीं करता, दूसरों के द्वारा भी धात करवाता है। स्वयं के द्वारा हिंसा सफल न होने पर दूसरों को स्वार्थभाव-मोह-ममत्व से प्ररित-प्रोत्साहित करके हिंसा करवाता है, हिसा में सहयोग देने के लिए उकसाता है / अथवा हिंसा के लिए उत्तेजित करता है, हिसोत्तेजक विचार फैलाता है, लोगों को हिसा के लिए अभ्यस्त करता है। इससे भी आगे बढ़कर कोई व्यक्ति हिंसा करने वालों का अनुमोदन समर्थन करता है, हिसाकर्ताओं को धन्यवाद देता है. हिसा के लिए अनुमति, उपदेश या प्रेरणा देता है, अथवा हिंसा के मार्ग पर जाने के लिए बाध्य कर देता है, इस प्रकार कृत, कारित और अनुमोदित तीनों ही प्रकार की हिसा (प्राणातिपात) है / और वह पापकर्मबन्ध का कारण है / इसलिए यहाँ बताया गया है- अदुवा अण्णेहिं घायए हणत वाऽणुजाणाइ / " इस पाठ से शास्त्रकार ने उन मतवादियों के विचारों का खण्डन भी ध्वनित कर दिया है जो केवल काया से होने वाली हिंसा को ही हिसा मानते हैं, अथवा स्वयं के द्वारा की जाने वाली हिंसा को ही हिंसा समझते हैं, दूसरों से कराई हुई हिंसा को, या मैं दूसरों के द्वारा कृत हिंसा की अनुमोदना को हिंसा नहीं समझते / मनुस्मृति में भी हिंसा के समर्थकों आदि को हिंसक की कोटि में परिगणित किया गया है।५७ त्रिविध हिंसाः कर्मबन्ध का कारण क्यों ?-पूर्वोक्त त्रिविध हिसा कर्मबन्ध का कारण क्यों बनती है ? इसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- "वैरं वति अपणो" / आशय यह है कि हिसा करने, कराने तथा अनुमोदन करने वाला व्यक्ति हिस्य प्राणियों के प्रति अपना वैर बढ़ा लेता है / जिस प्राणी का प्राणातिपात किया कराया जाता है, उसके मन में उक्त हिंसक के प्रति द्वेष, रोष, घृणा तथा प्रतिशोध की क्रूर 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-१३-. "पंचेन्द्रियाणि विविध बल च; उच्छ्वास-नि:श्वासमथान्यदायुः / प्राणा दर्शले भगवदभिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा // " 17 सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 13-- "अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति धातकाः // " -मनुस्मृति, चाणक्यनीति -किसी जीव की हिंसा का अनुमोदन करने वाला, दूसरे के कहने से किसी का वध करने वाला, स्वयं उस जीव की हत्या करने वाला, जीव हिंसा से निष्पन्न मांस आदि को खरीदने-बेचने वाला, मांसादि पदार्थों को पकाने वाला, परोसने वाला या उपहार देने वाला, और हिंसा निष्पन्न उक्त मांसादि पदार्थ को स्वयं खाने-सेवन करने वाला, ये सब हिंसक की कोटि में हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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