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________________ 29 सुत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय अक्रारकबाद 13. कुव्वं च कारवं चेव सम्वं कुव्वं ण विज्जति / एवं अकारओ अप्पा एवं ते उ पगम्भिया // 13 // 14. जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसि कुओसिया। तमातो ते तमं जति मंदा आरंभनिस्सिया // 14 / / 13. आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, और न दूसरों से कराता है, तथा आत्मा समस्त (कोई भी) क्रिया करने वाला नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा अकारक है। इस प्रकार वे (अकारकवादी साँख्य आदि) (अपने मन्तव्य की) प्ररूपणा करते हैं। 14. जो वे (पूर्वोक्त) वादी (तज्जीव-तच्छरीरवादी तथा अकारकवादी) इस प्रकार (शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, इत्यादि तथा "आत्मा अकर्ता और निष्क्रिय है") कहते हैं, उनके भत में यह लोक (चतुर्गतिक संसार या परलोक) कैसे घटित हो सकता है ? (वस्तुतः) वे मूढ़ एवं आरम्भ में आसक्त वादी एक (अज्ञान) अन्धकार से निकल कर दूसरे अन्धकार में जाते हैं। विवेचन-अकारकबादः क्या है ?-१३वीं गाथा में अकारकवाद की झांकी बताई गई है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसे सांख्यों का मत बताया है। क्योंकि अकर्ता निगुणो भोक्ता आत्मा कापिलदर्शने', यह सांख्य दर्शनमान्य उक्ति प्रसिद्ध है। सांख्यदर्शन आत्मा को अमूर्त, कूटस्थनित्य और सर्वव्यापी मानते है, 4: इसलिए उसके मतानुसार आत्मा स्वतन्त्र कर्ता (क्रिया करने में स्वतंत्र) नहीं हो सकता, वह स्वयं क्रियाशून्य होता है / वह दूसरे के द्वारा क्रिया कराने वाला नहीं है। इसीलिए कहा गया है- "कुध्वं च कारवं चेव” गाथा में प्रयुक्त प्रथम 'च' शब्द आत्मा के भूत और भविष्यत् कतत्व का निषेधक है। आत्मा इसलिए भी अकर्ता है कि वह विषय-सुख आदि को तथा इसके कारण पुण्य आदि कर्मों को नहीं करता। प्रश्न होता है--जब इस गाथा में आत्मा के स्वयं कर्तृत्व एवं कारयितत्व का निषेध कर दिया, तब फिर दुबारा “सव्वं कुव्वं न विज्जई" कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ___ इसका समाधान यों किया जाता है कि आत्मा स्वयं क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु 'मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय' एवं जपास्फटिकन्याय से वह स्थितिक्रिया एवं भोगक्रिया करता है / जैसे किसी दर्पण में प्रतिबिम्बित मति अपनी स्थिति के लिए प्रयत्न नहीं करती, वह अनायास ही चित्र में स्थित रहती है, इसी प्रकार प्रकृतिरूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित आत्मा अनायास ही स्थित रहती है / ऐसी स्थिति में प्रकृतिगत विकार पुरुष (आत्मा) में प्रतिभासित होते हैं। इस मुद्राप्रतिबिम्बोदय न्याय से आत्मा स्थित क्रिया का स्वयं कर्ता न होने के कारण अकर्ता-सा है। 46 "अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः / __ अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने // " -षड्दर्शन समुच्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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