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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 11 से 11 इस प्रकार के बाद के तीन परिणाम फलित होते हैं, जो 12 वीं गाथा में बता दिये गए हैं(१) जीव के शुभाशुभकर्मफलदायक पुण्य और पाप नहीं होते / (2) इस लोक से भिन्न कोई दूसरा लोक ही नहीं है। (3) शरीर के नाश के साथ ही शरीरी आत्मा का नाश हो जाता है। पुण्य और पाप ये दोनों इसलिए नहीं माने गये कि इनका धर्मीरूप आत्मा यहीं समाप्त हो जाता है / पुण्य-पाप को मानने पर तो उनका फल भोगने के लिए परलोक में गमन भी मानना जरूरी हो जाता है / इसलिए न तो पुण्य-पाप है, और न ही उनका फल भोगने के लिए स्वर्ग-नरकादि परलोक हैं / जब आत्मा ही नहीं, तब आत्मा को धारण करने वाला प्राणी एक जन्म से दूसरे जन्म में कैसे जायेगा ? जैसे पानी का बुलबुला पानी से भिन्न नहीं होता है, वह पानी से ही पैदा होता है और उसी में विलीन हो जाता है, वैसे ही चैतन्य पंचभूतात्मक शरीर से ही पैदा होता है, और उसी में समा जाता है, उसका अलग कोई अस्तित्व नहीं है / जैसे ग्रीष्मऋतु में मरुभूमि में जल न होने पर भी जल का भ्रम हो जाता है, वैसे ही पंचभूतसमुदाय बोलना, चलना आदि विशिष्ट क्रियाएँ करता है, इससे जीव होने का भ्रम होता है।" जब उनसे यह पूछा जाता है कि यदि शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है, पुण्य-पाप एवं परलोकादि नहीं हैं, तब धनी-निर्धन, रोगी-निरोगी, सुखी-दुःखी आदि विचित्रताएँ जगत् में क्यों दृष्टिगोचर होती हैं ? तो वे उत्तर देते हैं-यह सब स्वभाव से होता है / जैसे--दो पत्थर के टुकड़े पास-पास ही पड़े हैं, उनमें से एक को मूर्तिकार गढ़ कर देवमति बना देता है, तो वह पूजनीय हो जाता है। दूसरा पत्थर का टुकड़ा केवल पैर धोने आदि के काम आता है। इन दोनों स्थितियों में पत्थर के टुकड़ों का कोई पुण्य या पाप नहीं है, जिससे कि उनकी वैसी अवस्थाएँ हों, किन्तु ये स्वाभाविक है / अतः जगत् में दृश्यमान विचित्रता भी स्वभाव से है। कांटों में तीक्ष्णता, मोर के पंखों का रंगबिरंगापन, मुर्गी की रंगीन चोटी आदि स्वभाव से होते हैं। परन्तु कोई भी भारतीय आस्तिक दर्शन इस समाधान से सन्तुष्ट नहीं हैं / पुण्य-पाप या परलोक न मानने पर जगत् की सारी व्यवस्था एवं शुभकार्य में प्रोत्साहन समाप्त हो जायेंगे। कठिन शब्दों को व्याल्या-पेच्चा-मरने के बाद परलोक में ओववाइया-औपपातिक, एक भव से दूसरे भव में जाना उपपात कहलाता है। जो एक भव से दूसरे भव में जाते हैं, वे औषपातिक हैं। पवेदेति / चातुमहाभूतिको अयं पूरिसो यदा कालं करोति, पढवीपठवीकार्य अनुपेति, अनुपगच्छति, आप आपो कायं अनु""तेजोते-जोकायं अनु..."वायो वायोकायं अनु०""आकासं इन्द्रियानि संक्रमन्ति मुसा विलापो ये के चि अस्थिकवादी वदन्ति / बाले च पण्डिते च कायरस भेदा उन्छिजति विनरसंति, न होन्ति परं मरणा' ति। -सुत्तपिटक दीघनिकाय भा० 1 सामञफलसुत्त, पृ०-४१-५३ (ग) सूत्रकृतांग द्वितीय तस्कन्ध सू०-८३३-८३४ में, तथा रायपसेणियसत्त' में इस सम्बन्ध में विस्तृत वर्ण देखें। 45 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक-२०-२१ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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