________________ " अर्थागमरूप से सूत्रकर्ता (उपदेशसूत्रकर्ता) भ० महावीर हैं, वाणा या उपदेश उनके अंगभूत होने से इसके अन्त में अंग-शब्द और जोड़ा गया। इस कारण भी इस शास्त्र का नाम सूत्रकृतांग प्रचलित हो गया। - क्षीराश्रवादि अनेकलब्धिरूप योगों के धारक गणधरों ने भगवान् से अर्थरूप में सुनकर अक्षरगुण मतिसंघटना और कर्मपरिशाटना (कर्मसंक्षय), इन दोनों के योग से अथवा वागयोग और मनोयोग से शुभ अध्यवसायपूर्वक इस सूत्र की रचना की, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत हो गया।' / सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं / प्रथम श्रु तस्कन्ध में 16 अध्ययन हैं, इस कारण इसका एक नाम 'गाथाषोडशक' भी है। / द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 7 अध्ययन हैं, ये विस्तृत होने कारण इसे 'महज्झयणाणि' (महाध्ययन) भी कहते हैं। प्रथम श्रु तस्कन्ध के 16 अध्ययनों के कुल 26 उद्देशक हैं, और द्वितीय श्रु तस्कन्ध के 7 अध्ययनों के सात / कुल 33 उद्देशक हैं / 33 ही समुद्देशनकाल हैं, तथा 36000 पदाग्र हैं।" L) सूत्रकृतांग में स्वसमय-परसमय, जीवादि नौ तत्त्वों, श्रमणों की आचरणीय हितशिक्षाओं तथा 363 दर्शन मतों का निरूपण है। 10 दिगम्बर साहित्य में सूत्रकृतांग की विषय वस्तु का निरूपण प्रायः समान ही है।११ 7 नन्दी० मलयगिरिवृत्ति 8 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 20 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 7 6 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 22 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 8 10 सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 22, शीलांक वत्ति पत्रांक 8 11 (क) समवायांग सू०६० (ख) नन्दीसूत्र सू० 82 (ग) अंग पण्णत्ती, जयधवला पृ० 112, राजवार्तिक 1120, धवला पृ० 100 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org