________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 233 से 237 237 ऋतुकाल में उसके साथ समागम करता है, तो उसमें उसे कोई दोष न होने से उसके तथारूप मैथुन सेवन में दोष नहीं है / 21 ___ खण्डन- इन तीनों गाथाओं में तथाकथित पावस्थों की तीनों मान्यताओं का मूल स्वर एक ही है-'रति-प्राथिनी स्त्री के साथ समागम निर्दोष है जिसे प्रत्येक गाथा के अन्त में दोहराया गया है"एवं विष्णवणित्योसु दोसो तत्य कुतो सिया ? ये तीनों मान्यताएं मिथ्या एवं सदोष : क्यों और कैसे ?- विद्वान् नियुक्तिकार तीन गाथाओं द्वारा इस मिथ्या मान्यता को बहुत बड़ा उपसर्ग ध्वनित करते हुए इसका खण्डन करते हैं--(१) जैसे कोई व्यक्ति तलवार से किसी का सिर काट कर चुपचाप कहीं छिप कर बैठ जाए तो क्या इस प्रकार उदासीनता धारण करने से उसे अपराधी मान कर पकड़ा नहीं जाएगा ? (2) कोई मनुष्य यदि विष की पूंट पीकर चुपचाप रहे या उसे कोई पीते देखे नहीं, इतने मात्र से क्या उसे विषपान के फलस्वरूप मत्यु के मुंह में नहीं जाना पड़ेगा ? (3) यदि कोई किसी धनिक के भण्डार से बहुमूल्य रत्न चुरा कर पराङ्मुख होकर चुपचाप बैठ जाए तो क्या वह चोर समझ कर पकड़ा नहीं जाएगा? तात्पर्य यह है कि कोई मनुष्य मूर्खतावश या दुष्टतावश किसी की हत्या करके, स्वयं विषपान किसी की चोरी करके मध्यस्थ भाव धारण करके बैठ जाए तो वह निर्दोष नहीं हो सकता। दोष या अपराध करने का विचार तो उसने कुकृत्य करने से पहले ही कर लिया, फिर उस कुकृत्य को करने में प्रवत्त हआ, तब दोष-संलग्न हो गया, तत्पश्चात उस दोष को छिपाने के लिए वह उदासीन होकर या छिपकर एकान्त में बैठ गया, यह भी दोष ही है / अतः दोष तो कुकृत्य करने से पूर्व, कुकृत्य करते समय और कुकृत्य करने के पश्चात् यों तीनों समय है / फिर उसे निर्दोष कैसे कहा जा सकता है ? इसी तरह कोई व्यक्ति किसी स्त्री की मैथुन सेवन करने की प्रार्थना मात्र से उसके साथ मैयुन में उस कुकृत्य में प्रवृत्त हो जाता है तो उस रागभाव रूप पाप का विचार आए बिना नहीं रहेगा तत्पश्चात् मैथुन क्रिया करते समय भी तीव्र रागभाव होना अवश्यम्भावी है। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए मैथुन-सेवन वजित है, क्योंकि यह महादोषोत्पत्ति स्थान है / 22 अतः राग होने पर ही उत्पन्न होने वाला, समस्त दोषों का स्थान, हिंसा का कारण एवं संसार 21 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 67-68 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 487-488 (ग) देखिये उन्हीं के धर्मशास्त्र में लिखा है--- धर्मार्थ पुत्रकामाय स्वदारेस्वधिकारिणे / ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते / / 22 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 53.54-55 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 18 मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहणसंसगं निग्गथा वज्जयंति णं / / -दशवकालिक 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org