________________ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन---उपसर्गपरिज्ञा भ्रमणवर्द्ध क मैथुनसेवन--चाहे वह स्त्री-पुरुष दोनों की इच्छा से ही क्यों न हो, कथमपि निर्दोष नहीं हो सकता। कठिन शब्दों की व्याख्या-विग्णवणीत्थीसु--स्त्री की विज्ञापना-समागम प्रार्थना होने पर / मंधादए-- मन्धादन-भेड़ / थिमित-हिलाए बिना-स्थिरतापूर्वक / भुजती-उपभोग करती है, पीती है। चूर्णिकार 'पियति' पाठान्तर माना है / पिंगा विहंगमा-कपिजल नामक आकाशचारी पक्षिणी 24 कौन पश्चाताप करता है, कौन नहीं ! 238. अणागयमपस्संता पच्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति खोणे आउम्मि जोव्वर्ण // 14 // 236. जेहि काले परक्कतं न पच्छा परितप्पए / ते धोरा बंधणुमुक्का नावखंति जीवियं / / 15 / / 238. भविष्य में होने वाले दुःख को न देखते हुए जो लोग वर्तमान सुख के अन्वेषण खिोज) में रत रहते हैं, वे बाद में आयु और युवावस्था क्षीण (नष्ट) होने पर पश्चात्ताप करते हैं / 236. जिन (आत्महितकर्ता) पुरुषों ने (धर्मोपार्जन-) काल में (समय रहते) धर्माचरण में पराक्रम किया है, वे पीछे पश्चात्ताप नहीं करते। बन्धन से उन्मुक्त वे धीरपुरुष असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते। विवेचन-कौन पश्चात्ताप करते हैं, कौन नहीं ?-- इस गाथादन (स० गा० 238, 236) में पूर्वोक्त उपसर्गों के सन्दर्भ में यह बताया गया है कि कौन व्यक्ति पश्चात्ताप करते हैं, कौन नहीं करते--(१) जो वर्तमान में किये हुए दुष्कृत्यों से अथवा काम-भोग सुखासक्ति से भविष्य में प्राप्त होने वाले दुःखरूप कुफल का विचार नहीं करते, (2) दूरदर्शी न होकर केवल वर्तमान सुख की तलाश में रहते हैं / ये मात्र प्रयोवादी लोग यौवन और आयु ढल जाने पर पश्चात्ताप करते हैं, परन्तु (1) जो श्रेयोवादी दूरदर्शी लोग धर्मोपार्जन काल में धर्माचरण में पुरुषार्थ करते हैं, (2) जो वर्तमान कामभोगजनित क्षणिक सुख के लिए असंयमी जीवन जीना नहीं चाहते, (3) जो परीषह-उपसर्ग सहन करने में धीर हैं, और (4) जो स्नेहबन्धन या कर्मबन्धन से दूर रहते हैं, वे पश्चात्ताप नहीं करते। पश्चात्ताप करने का कारण और निवारण- जो व्यक्ति पूर्वोक्त भ्रान्त मान्यताजनित उपसों के शिकार 23 प्राणिनां बाधक चतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः / / नलिका तप्त कणकप्रवेशज्ञाततस्तथा // 1 // मूलं चैतदधर्मस्य भवभावप्रवर्धनम् / तस्माद् विषान्नवट त्याज्यमिदं पायमनिच्छता // 2 // 24 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 67.68 25 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा०२ पृ. 60-61 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org