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________________ सूत्रकृतांग -तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजर _ जिणसासण परम्मुहा' -- राग-द्वेष विजेता जिन कहलाते हैं, उनका शासन है-उनकी आज्ञा--कषाय, मोह और राग-द्वेष को उपशान्त करने की आज्ञा से विमुख-अर्थात् - संसाराभिसक्त तथा जैनमार्ग को कठोर समझकर उससे घृणा, द्वेष करने वाले जिनशासन पराङ्मुख कहलाते हैं। काम-भोगों में अत्यासक्त-सुत्रगाथा 237 में इन भ्रष्ट साधकों को, फिर वे चाहे जैन श्रमण ही क्यों न हों, उन्हें पाशस्थ, मिथ्यादृष्टि एवं अनायं बताया गया है। और कहा गया है कि पिशाचिनी पूतना जैसे छोटे बच्चों पर आसक्त रहती है, वैसे ही ये मिथ्यात्वी अनार्य एवं पाशस्थ तरुणियों के साथ कामभोगों के सेवन में अत्यधिक आसक्त रहते हैं। शास्त्रकार कहते हैं- "त्वमेग उपूतणा इव तरुणए।" चणिकार 'पूयणा व तण्णए' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते है --- ''यणा नाम औरणीया, तस्या अतीव तण्णगे छावके स्नेहः / " 'पूयणा' कहते हैं-भेड़ को, उसका अपने बच्चे पर अत्यधिक स्नेह (आसक्ति) रहता है। वृत्तिकार ने एक उदाहरण देकर इसे सिद्ध किया है --- "एक बार अपनी सन्तान पर पशुओं की आसक्ति की परीक्षा के लिए सभी पशुओं के बच्चे एक जल रहित कुंए में रख दिये गए। उसी समय सभी मादा पशु अपने-अपने बच्चों की आवाज सुनकर कुए के किनारे आकर खड़ी हो गई। परन्तु भेड़ अपने बच्चों की आवाज सुनकर उनके मोह में अन्धी होकर कुए में कूद पड़ी। इस पर से समस्त पशुओं में भेड़ की अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक आसक्ति सिद्ध हो गई।" इसी तरह पूर्वोक्त भ्रान्त मान्यताओं के शिकार साधक कामभोगों में अत्यन्त आसक्त होते हैं।" जहा गंडं पिलागं वा....."को सिया? ---प्रथम अज्ञानियों की मायता- यह है कि जैसे किसी के शरीर में फोड़ा-फुसी हो जाने पर उसकी पीड़ा शान्त करने के लिए उसे दवा कर मवाद आदि निकालने से थोड़ी ही देर में उसे सुख-शान्ति हो जाती है, ऐसा करने में कोई दोष नहीं माना जाता; वैसे ही कोई युवती अपनी काम-पीड़ा शान्त करने के लिए समागम की प्रार्थना करती है तो उसके साथ समागम क रके उसकी काम-पीड़ा शान्त करने में दोष ही क्या? दोष तो बलात्कार में होता है। जहा मधादए ... को सिया? दूसरे अज्ञानियों को मान्यता-जैसे भड़ घुटनों को पानी में झुका कर पानी को गंदा किये, या हिलाए बिना ही स्थिरतापुर्वक धीरे से चुपचाप पानी पीकर अपनी तृप्ति कर लेती है, उसकी इस चेष्टा से किसी जीव को पीड़ा नहीं होती, इसी प्रकार सम्भोग की प्रार्थना करने वाली नारी के साथ सम्भोग करने से किसी जीव को कोई पीड़ा नहीं होती और उसकी व अपनी कामतृप्ति हो जाती है, इस कार्य में दोष ही क्या है ? जहा विहंगमा पिंगा...."को सिया?-तीसरे अज्ञानियों की मान्यता-जैसे कपिजल नाम की चिडिया आकाश में ही स्थित रहकर दूसरे अगों द्वारा जलाशय के जल को हुए विना या हिलाये बिना केवल अपनी चोंच की नोक से जलपान कर लेती है, उसका जलपान जीवघात एवं दोष से रहित है / इसी प्रकार किसी नारी द्वारा समागम प्रार्थना किये जाने पर कोई पुरुष रागद्वे परहित बुद्धि से, उस स्त्री के अन्य अगों को कुशा से ढक कर न छूते हुए सिर्फ पुत्रोत्पत्ति के उद्देश्य से (काम के उद्देश्य से नहीं) 20 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 67 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुबोधिनी व्याख्या पृ० 485.486 ९वं 461 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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