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________________ सूत्रकृतांग--द्वितीय अध्ययन-वंतालीय विवेचन-अनकल परीषह-उपसर्ग-सहन का उपदेश-प्रस्तुत पाँच सुत्रों में शास्त्रकार ने माता-पिता आदि स्वजनों द्वारा साधु को संयम छोड़ने के लिए कैसे-कैसे विवश किया जाता है ? उस समय साधु क्या करे ? कैसे उस उपसर्ग या परीषह पर विजय प्राप्त करे ? अथवा साधु धर्म पर कैसे डटा रहे ? यह तथ्य विभिन्न पहलुओं से प्रस्तुत किया है। स्वजनों द्वारा असंयमी जीवन के लिए विवश करने के प्रकार - यहाँ पाँच सूत्रों में क्रमशः अनुकूल उपसर्ग का चित्रण किया है, साथ ही साधु को दृढ़ता रखने का भी विधान किया है (1) संयमी तपस्वी साधु को गृहवास के लिए उसके गृहस्थ पक्षीय स्वजन प्रार्थना एवं अनुनयविनय करें, (2) दोनतापूर्वक करुण विलाप करें या करुणकृत्य करें, (3) उसे गृहवास के लिए विविध काम-भोगों का प्रलोभन दें, (4) उसे भय दिखाएँ, मार-पीटें, बाँधकर घर ले जाएँ, (5) नव दीक्षित साधु को उभय-लोक भ्रष्ट हो जाने की उलटी शिक्षा देकर संयम से 'भ्रष्ट करें, (6) जरा-सा फिसलते ही उसे मोहान्ध बनाकर निःसंकोच पाप-परायण बना देते हैं। पाँचवीं अवस्था तक सर्व विरति संयमी साधु को स्वजनों द्वारा चलाए गए अनुकूल उपसर्ग बाणों से अपनी सुरक्षा करने का अभेद्य संयम कवच पहनकर उनके उक्त प्रक्षेपास्त्रों को काट देने और दृढ़ता बताने का उपदेश दिया है। उपसर्ग का प्रथम प्रकार-जो अनगार तपस्वी, संयमी और महाव्रतों में दृढ़ है, उसे उसके बेटे, पोते या माता-पिता आदि आकर बार-बार प्रार्थना करते हैं-आपने बहुत वर्षों तक संयम पालन कर लिया, अब तो यह सब छोड़कर घर चलिए। आपके सिवाय हमारा कोई आधार नहीं है, हम सब आपके बिना दुःखी हो रहे हैं, घर चलिए, हमें संभालिए।" इसीलिए इस गाथा में कहा गया है-'डहरा वुड्ढा य पत्थए।' उपसर्ग का द्वितीय प्रकार-अव दूसरा प्रकार है-करुणोत्पादक वचन या कृत्य का। जैसे-उसके गृहस्थ पक्षीय माता, दादी, या पिता, दादा आदि करुण स्वर में विलाप करके कहें-बेटा ! तुम हम दुःखियों पर दया करके एक वार तो घर चलो, देखो, तुम्हारे बिना हम कितने दुःखी हैं ? हमें दुःखी करके कौन सा स्वर्ग पा लोगे ?" यह एक पहलू है, संयम से विचलित करने का, जिसके लिए शास्त्रकार कहते हैं --- “जइ कालुणियाणि कासिया।" इसी का दूसरा पहलू है, जिसे शास्त्रकार इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -- 'जइ रोयति य पुत्तकारणा'-आशय यह है कि उस साधु की गृहस्थ पक्षीय पत्नी रो-रोकर कहने लगे हे नाथ ! हे हृदयेश्वर ! हे प्राणवल्लभ ! आपके बिना सारा घर सूना-सूना लगता है / बच्चे आपके बिना रो रहे हैं, जब देखो, तब वे आपके ही नाम की रट लगाया करते हैं। उन्हें आपके बिना कुछ नहीं सुहाता। मेरे लिए नहीं तो कम से कम उन नन्हें-मुन्नों पर दया करके ही घर चलो! आपके घर पर रहने से आपके बूढ़े माता-पिता का दिल भी हरा-भरा रहेगा / अथवा उक्त साधु की पत्नी अश्र प्रित नेत्रों से गद्गद होकर कहे-'आप घर नहीं चलेंगे तो मैं यहीं प्राण दे दूंगी। आपको नारी हत्या का पाप लगेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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