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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 104 से 108 127 इतने निप्टर मत बनिये।" अथवा उसके बूढ़े स्वजन रो-रोकर कहें-"बेटा ! एक बार तो घर चलो। कुलदीपक पुत्र के बिना घर में सर्वत्र अधेिरा है / हमारा वंश, कुल या घर सूना-सूना है। अतः और कुछ नहीं तो अपनी वंशवृद्धि के लिए कम से कम एक पुत्र उत्पन्न करके फिर तुम भले ही संयम पालना। हम फिर तुम्हें नहीं रोकेगे / केवल एक पुत्र की हमारी मनोकामना पूर्ण करो।" उपसर्ग का तीसरा प्रकार--यह प्रारम्भ होता है- प्रलोभन से / साधु के स्वजन प्रलोभन भरे मधुर शब्दों में कहते हैं--तुम हमारी बात मानकर घर चले चलो। हम तुम्हारी सुख-सुविधा में कोई कमी नहीं आने देगे / तुम्हारी सेवा में कोई कमी नहीं आने देंगे। उत्तमोत्तम नृत्य, गायन, वादन, राग-रंग आदि से तुम्हारी प्रसन्नता बढ़ा देंगे। बढ़िया-बढ़िया स्वादिष्ट खानपान से तुम्हें तृप्त कर देंगे। मनचाहे सुगन्धित पदार्थों से तुम्हारा मन जरा भी नहीं उबेगा, एक से एक बढ़कर स्वर्ग की अप्सरा-सी सुन्दरियाँ तुम्हारी सेवा में तत्पर रहेंगीं। तुम्हारे उपभोग के लिए सब तरह की सुख-सामग्री जुटा देंगे।" इसी तथ्य को उजागर करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--'जइ विय कामेहि लाविया' / उपसर्ग का चौथा प्रकार-इसी गाथा में उपसर्ग के चौथे प्रकार का रूप दिया गया है-~-'जइ गेज्जाहि -आशय यह है कि प्रलोभन से जब साधू डिगता न दीखे तो पारिवारिक जन भय का अस्त्र छोड़ें- “उसे डराएँ-धमकाएँ, मार-पीटें या जबरन रस्सी से बांधकर घर ले जाएँ, अथवा उसे वचनबद्ध करके या स्वयं स्वजन वर्ग उसके समक्ष वचनबद्ध होकर घर ले जाएँ। उपसर्ग का पाँचवाँ प्रकार-इतने पर भी जब संयमी विचलित न हो तो स्वजन वर्ग नया मोह प्रक्षेपास्त्र छोड़ते हैं, शिक्षा देने के बहाने से कहते हैं- “यह तो सारा संसार कहता है कि माता-पिता एवं परिवार को दुःखी, विपन्न, अर्थ-संकटग्रस्त एवं पालन-पोषण के अभाव में त्रस्त बनाकर साधु बने रहना धर्म नहीं है, यह पाप है। माता-पिता आदि का पालन-पोषण करने वाला घर में कोई नहीं है, और एक तुम हो कि उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी से छिटककर माधु बन गये हो / चलो, अब भी कुछ नहीं विगड़ा है / घर में रहकर हमारा भरण-पोषण करो। अथवा वे कहते हैं -तुम तो प्रत्यक्षदर्शी हो, घर की सारी परिस्थिति तुम्हारी आँखों देखी है, तुम्हारे बिना यह घर बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। अथवा तुम तो दूरदर्शी हो या सूक्ष्मदर्शी, जरा बुद्धि से सोचो कि तुम्हारे द्वारा पालन-पोषण के अभाव में हमारी कितनी दुर्दशा हो जायेगी ? अथवा वे यों कहते हैं-ऐसे समय में दीक्षा लेकर तुमने इहलोक भी बिगाड़ा, इस लोक का भी कोई सुख नहीं देखा, और अब परलोक भी बिगाड़ रहे हो, मातापिता एवं परिवार के पालन-पोषण के प्रथम कर्तव्य से विमुख होकर ! दुःखी परिवार का पालन-पोषण करना तुम्हारा प्रथम धर्म है,२२ इस पुण्य लाभ को छोड़कर भला परलोक का सुख कैसे मिलेगा ?" 22 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 58 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या पृ० 310 से 312 तक (ग) देखिये उनके द्वारा दिया जाने वाला शिक्षासूत्र "या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु महमेधिनाम् / विभ्रताम् पुत्र दारांस्तु तां गति ब्रज पुत्रक !" अर्थात्-हे पुत्र ! पूत्र और पत्नी का भरण पोषण करने हेतु क्लेश सहने वाले गहस्थों का (गहस्थी का) जो मार्ग है, उसी मार्ग से तुम भी चलो।" -सूत्र कृ० शीलांक वृत्ति भाषानुवाद भा० 1 पृ० 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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