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________________ 306 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति नारकियों को चढ़ाकर उन्हें चलने के लिए प्रेरित करते हैं / (बीच-बीच में) क्रुद्ध होकर तीखा नोकदार शस्त्र उनके मर्मस्थान में चुभोते हैं। 342. बालक के समान पराधीन बेचारे नारकी जीव नरकपालों द्वारा बलात् कीचड़ से भरी और कांटों से परिपूर्ण विस्तृत भूमि पर चलाये जाते हैं। पापकर्म से प्रेरित नरकपाल अनेक प्रकार के बन्धनों से बांधे हुए विषण्ण-(या विवर्ण= उदास) चित्त या संज्ञाहीन (मूच्छित) नारक जीवों को खण्डश: काट-काट कर नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं। 343. आकाश में बड़े भारी ताप से युक्त एक ही शिला से बनाया हुआ अतिविस्तत वैतालिकवैविय पर्वत है। उस पर्वत पर रहने वाले अतिक र कर्मा नारकी जीव हजार मुहूर्तों से अधिक काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं। 344. निरन्तर पीड़ित किये जाते हुए दुष्कर्म किये हुए पापात्मा नारक दिन-रात परिताप (दुःख) भोगते (संतप्त हो) हुए रोते रहते हैं। उस एकान्त कूट (दुःखोत्पत्ति स्थान), विस्तृत और विषम (ऊबड़ खाबड़ या कठिन) नरक में पड़े हुए प्राणी गले में फांसी डालकर मारे जाते समय केवल रोदन करते हैं। 345. मुद्गर और मूसल हाथ में लेकर नरकपाल पहले के शत्रु के समान रोष के साथ नारकीय जीवों के अंगों को तोड़-फोड़ देते हैं। जिनकी देह टूट गई है, ऐसे नारकीय जीव रक्त वमन करते हुए अधोमुख होकर जमीन पर गिर पड़ते हैं। 346. उस नरक में सदा कोधित और क्षुधातुर बड़े ढीठ विशालकाय सियार रहते हैं। वे वहाँ रहने वाले जन्मान्तर में बहुत पाप (क र) कर्म किये हुए तथा जंजीरों से बंधे हुए निकट में स्थित नारकों को खा जाते हैं। 347. (नरक में) सदाजला नाम की अत्यन्त दुर्गम (गहन या विषम) नदी है, जिसका जल क्षार, मवाद और रक्त से मलिन रहता है, अथवा वह भारी कीचड़ से भरी है, तथा वह आग से पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल वाली है उस अत्यन्त दुर्गम नदी में पहुंचे हुए नारक जीव (बेचारे) अकेले-असहाय और अरक्षित (होकर) तैरते हैं। विवेचन -नरक में मिलने वाली तीन वेदनाएँ और नारकों के मन पर प्रतिक्रिया-प्रस्तुत 21 सूत्रगाथाओं) मू० गा० 327 से 347 तक) में नारकों को नरक में दी जाने वाली एक से एक बढ़कर यातनाओं का वर्णन है, साथ ही नारकों के मन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का भी निरूपण किया गया है। यद्यपि नारकीय जीवों को मिलने वाली ये सब यंत्रणाएँ मुख्यतया शारीरिक होती है, किन्तु नारकों के मन पर इन यन्त्रणाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है, जो आँखों से आँसुओं के रूप में और वाणी से रुदन विलाप और रक्षा के लिए पुकार के रूप में प्रकट होता है। नारकों को ये सव यातनाएँ और भयंकर वेदनाएँ उनके पूर्वजन्म में किये हुए पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, इसलिए नरकों को यातना स्थान कहना योग्य ही है / वास्तव में पूर्वजन्मकृत पापकर्मों के फलभोग के ही ये स्थान है। इसीलिए शास्त्रकार ने नरक को सासयदुक्खधम्म- 'सतत दुःख देने के स्वभाव वाला' कहा है।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा०२ पृ० 13 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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