________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 327 से 347 333. (नरकपाल) अविवेकी नारक को गेंद के समान आकार वाली (नरक-कुम्भी) में डालकर पकाते हैं, जलते (चने की तरह भूने जाते) हुए वे नारकी जीव वहाँ से फिर ऊपर उछल जाते हैं, जहां वे द्रोणकाक नामक (विक्रिया-जात) कौओं द्वारा खाये जाते हैं, (वहाँ से दूसरी ओर भागने पर) दूसरे (सिंह, व्याघ्र आदि) नरक वाले हिंस्र पशुओं द्वारा खाये जाते हैं। 334. (नरक में) ऊँची चिता के समान आकार वाला (समुच्छित) धूम रहित अग्नि का एक स्थान है, जिस (स्थान) को (पाकर) शोक संतप्त नारकी जीव करुणस्वर में विलाप करते हैं / (नरकपाल) (नारक के) सिर को नीचा करके उसके शरीर को लोहे की तरह शस्त्रों से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। 335. उस नरक में अधोमुख करके ऊपर लटकाए हुए तथा शरीर की चमड़ी उधेड़ ली गई है, ऐसे नारकी जीवों को लोहे की तीखी चोंच वाले (काकगृध्र आदि) पक्षीगण खा जाते हैं। जहां यह पापात्मा नारकीय प्रजा मारी-पीटी जाती है, किन्तु संजीवनी (मरण-कष्ट पाकर भी आयु शेष रहने तक जलाए रखने वाली) नामक नरक भूमि होने से वह (नारकीय प्रजा) चिरस्थिति वाली होती है। 336. वशीभूत हुए श्वापद (जंगली जानवर) के समान प्राप्त हुए नारकी जीव को परमाधार्मिक तीखे शूलों से (बींधकर) मार गिराते हैं। शूल से बींधे हुए, भीतर और बाहर दोनों ओर से ग्लानउदास, एवं एकान्त दुःखी नारकीय जीव करुण क्रन्दन करते हैं। 337. (वहाँ) सदैव जलता हुआ एक महान् प्राणिघातक स्थान है, जिसमें बिना काष्ठ (लकड़ी) की आग जलती रहती है। जिन्होंने पूर्वजन्म में बहुत क र (पाप) कर्म किये हैं, वे कतिपय नारकीय जीव वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं और जोर-जोर से गला फाड़कर रोते रहते हैं। 338. परमाधामिक बड़ी भारी चिता रचकर उसमें करुण रुदन करते हुए नारकीय जीव को फैक देते हैं / जैसे आग में पड़ा हुआ घी पिघल जाता है, वैसे ही उस (चिता की अग्नि) में पड़ा हुआ पापकर्मी नारक भी द्रवीभूत हो जाता है / 336. फिर वहाँ सदैव सारा का सारा जलता रहने वाला एक गर्म स्थान हैं, जो नारक जीवों को निधत्त, निकाचित आदि रूप से बद्ध पाप कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है, जिसका स्वभाव अतिदुःख देना है। उस दुःखपूर्ण नरक में नारक के हाथ और पैर बांधकर शत्रु की तरह नरकपाल डंडों से पीटते हैं। 340. अज्ञानी नारक जीव की पीठ लाठी आदि से मार-मार तोड़ देते हैं और उसका सिर भी लोहे के धन से चूर-चूर कर देते हैं / शरीर के अंग-अंग चूर कर दिये गये वे नारक तपे हुए आरे से काष्ठफलक (लकड़ी के तख्ते) की तरह चीर कर पतले कर दिये जाते हैं, फिर वे गर्म सीसा पीने आदि कार्यों में प्रवृत्त किये जाते हैं। 341. नरकपाल पापकर्मा नारकीय जीवों के पूर्वकृत जीव हिंसादि रौद्र पापकार्यों का स्मरण कराकर बाण मारकर प्रेरित करके हाथी के समान भार वहन कराते हैं। उनकी पीठ पर एक, दो या तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org