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________________ 108 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविभक्ति 344. संबाहिया दुक्कडिणो थणंति, अहो य रातो परितप्पमाणा। एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ॥ 18 // 145. भंजति णं पुवमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतु। ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति // 16 // 346. अणासिता नाम महासियाला, पगभिणो तत्थ सयायकोवा / खज्जंति तत्था बहुकरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा // 20 // 347 सदाजला नाम नदी भिदुग्गा पविज्जला लोहविलोणतत्ता। जंसी भिदुग्गसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेति / / 21 / / 327. इसके पश्चात् शाश्वत (सतत) दुःख देने के स्वभाव वाले नरक के सम्बन्ध में आपको मैं अन्य बातें यथार्थरूप से कहूँगा कि दुष्कृत (पाप) कर्म करने वाले अज्ञानी जीव किस (जिस) प्रकार पूर्व (जन्म में) कृत स्वकर्मों का फल भोगते हैं। 328. परमाधार्मिक असुर नारकीय जीवों के हाथ और पैर बांधकर तेज उस्तरे और तलवार के द्वारा उनका पेट फट डालते हैं। तथा उस अज्ञानी जीव की लाठी आदि के प्रहार से) क्षत विक्षत देह को पकड़कर उसकी पीठ की चमड़ी जोर से उधेड़ लेते हैं। 326. वे नरकपाल नारकीय जीव की भुजा को मूल से काट लेते हैं, तथा उनका मुख फाड़कर उसमें लोह के बड़े-बड़े सपे हुए गोले डालकर जलाते हैं / (फिर) एकान्त में उनके जन्मान्तरकृत कर्म का स्मरण कराते हैं, तथा अकारण ही कोप करके चाबुक आदि से उनकी पीठ पर प्रहार करते हैं / 330. तपे हुए लोह के गोले के समान, ज्योति-सहित जलती हुई तप्त भूमि की उपमायोग्य भूमि पर चलते हुए वे नारकी जीव जलते हुए करुण क्रन्दन करते हैं। लोहे का नोकदार आरा भोंककर (चलने के लिए) प्रेरित किये हुए तथा गाड़ी के तप्त जुए में जुते (जोते हुए वे नारक (करुण विलाप करते हैं।) 331. अज्ञानी नारक जलते हुए लोहमय मार्ग के समान तपी हुई तथा (रक्त और मवाद के कारण) थोड़े पानी वाली (कीचड़ से भरी) भूमि पर परमाधार्मिकों द्वारा बलात् चलाये जाने से (बुरी तरह रोते-चिल्लाते हैं / ) (नारकी जीव) जिस (कुम्भी या शाल्मलि आदि) दुर्गम स्थान पर (परमाधामिकों द्वारा) चलाये जाते हैं, (जब वे ठीक से नहीं चलते हैं, तब) (कुपित होकर) डंडे आदि मारकर बैल की तरह उन्हें आगे चलाते हैं। 332. तीव (गाढ़) वेदना से भरे नरक में पड़े हुए वे (नारकी जीव) सम्मुख गिरने वाली शिलाओं के (द्वारा) नीचे दबकर मर जाते हैं। सन्तापनी (सन्ताप देने वाली) यानी कुम्भी (नामक नरक भूमि) चिरकालिक स्थिति वाली है, जहाँ दुष्कर्मी-पापकर्मी नारक (चिरकाल तक) संतप्त होता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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