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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 327 से 347 परमाधामिकों द्वारा दी जाने वाली यातनाएँ-नारकों को नरकपालों द्वारा दी जाने वाली यंत्रणाएँ मुख्यतया इस प्रकार है-(१) हाथ-पैर बांधकर तेज धार वाले उस्तरे व तलवार से पेट काटते हैं, ( घायल शरीर को पकड़ कर उसकी पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं, (3) भुजाएँ जड़ से काटते हैं, (4) मुह फाड़कर उसमें तपा हुआ लोह गोलक डालकर जला डालते हैं, (5) पूर्वजन्म कृत पापकर्मों का एकान्त में स्मरण कराकर गुस्से में आकर उनकी पीठ पर चाबुक फटकारते हैं, (6) लोहे के गोले के समान तपी हुई भूमि पर चलाते हैं, (7) गाड़ी के तपे हुए जुए में जोतकर तथा आरा भोंककर चलाते हैं, (8) जलते हुए लोहपथ के समान तप्त एवं रक्त-मवाद के कारण कीचड़ वाली भूमि पर जबरन चलाते हैं, जहाँ रुका कि नरकपाल डंडे आदि से मारकर आगे चलाते हैं, (6) सम्मुख गिरती हुई शिलाओं के नीचे दबकर मर जाते हैं, (10) संतापनी नामक नरक कुम्भी में रहकर चिरकाल तक संताप भोगते है, (11) गेंद के आकार वाली कन्दुकुम्भी में डालकर नारक को पकाते हैं / (12) वहाँ से ऊपर उछलते ही द्रोणकाक उन्हें नोचकर खा जाते हैं, शेष बचे हुए नारकों को सिंह-व्याघ्र आदि जंगली जानवर खा जाते हैं। (13) चिता के समान ऊँची निर्धूम अग्नि में अत्यन्त पीड़ा पाते हैं, जहाँ क्र र नरकपाल उनका सिर नीचा करके उनके शरीर को लोह की तरह शस्त्र से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं, (14) शरीर की चमड़ी उधेड़ कर औंधे लटकाए हुए नारकों को लोहे की तीखी चोंच वाले पक्षी नोचनोचकर खाते हैं, (15) हिंस्र पशु की तरह नारकीय जीव के मिलते ही वे तीखे शूलों से बांधकर उन्हें मार गिराते हैं, (16) सदैव बिना लकड़ी के जलता हुआ एक प्राणिघातक स्थान है, जहां नारक चिरकाल तक रहकर पीड़ा पाते हैं / (17) बहुत बड़ी चिता रच कर करुण विलाप करते हुए नारक को उसमें भौंक देते हैं / (18) सदैव पूरे के पूरे गर्म रहने वाले अतिदुःखमय नरक स्थान में हाथ-पैर बांधकर शत्रु की तरह मारते-पीटते हैं / (16) लाठी आदि से मार-मार कर पीठ तोड़ देते हैं, लोहे के भारी धन से सिर फोड़ देते हैं, उनके शरीर चूर-चूर कर देते हैं, फिर लकड़ी के तख्ते को चीरने की तरह गर्म आरों से चीर देते हैं, तब खौलता हुआ सीसा आदि पीने को बाध्य करते है, (20) नारक के पूर्वकृत रौद्र पापकर्मों का स्मरण करा कर उससे हाथी की तरह भारवहन कराया जाता है, एक दो या तीन नारकों को उसकी पीठ पर चढाकर चलाया जाता है, न चलने पर उसके मर्मस्थान में तीखा नो दार आरा आदि शस्त्र चुभोया जाता है / (21) परवश नारकों को कीचड़ से भरी एवं कंटीली विस्तीर्ण भूमि पर बलात् चलाया जाता है, (22) विविध बंधनों से बांधे हुए संज्ञा हीन नारकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें नगरबलि की तरह इधर-उधर फेंक देते हैं। (23) वैतालिक (वैक्रियक) नामक एक-शिलानिर्मित आकाशस्थ महाकाय पर्वत बड़ा गर्म रहता है, वहाँ नारकों को चिरकाल तक मारा-पीटा जाता है। (24) उनके गले में फांसी का फंदा डालकर दम घोटा जाता है, (25) मुद्गरों और मूसलों से रोषपूर्वक पूर्वशत्रुवत् नारकों के अंग-भंग करते हैं, शरीर टूट जाने पर वे औंधे मुंह रक्तवमन करते हुए गिर जाते हैं / (26) नरक में सदा खूख्वार, भूखे, ढीठ तथा महाकाय गीदड़ रहते हैं, जो जंजीरों से बंधे हुए निकटस्थ नारकों को खाते रहते हैं / (27) सदाजला नामक विषम या गहन दुर्गम नदी है, जिसका पानी रक्त, मवाद, एवं खार के कारण मैला व पंकिल है, उसके पिघले हुए तरल लोह के समान अत्यन्त उष्ण जल में नारक अकेले और अरक्षित होकर तैरते हैं। इन और प्रथम उद्देशक में कथित, यातनाओं के अतिरिक्त अन्य सैकड़ों प्रकार की यातनाएँ नरक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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