SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम उद्देशक : माथा 170 से 171 187 की पीड़ा दुस्त्याज्य (या दुःसह) होती है। प्राकृत जन (अज्ञ लोग) इस प्रकार कहते हैं कि ये (भिक्षु-साधु) पूर्वकृत पापकर्म का फल भोग रहे हैं, ये अभागे हैं। 171. गाँवों में या नगरों में इन (पूर्वोक्त आक्रोशजनक) शब्दों को सहन न कर सकने वाले मन्द (अल्पसत्व साधक) आक्रोश परीषह रूप उपसर्ग के प्राप्त होने पर इस प्रकार विषाद पाते हैं, जैसे संग्राम में डरपोक लोग (विषाद पाते हैं)। विवेचन-याचना-आक्रोश परीषह रूप उपसर्गों के समय कच्चे साधक की मनोदशा-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में दो उपसर्गों के समय अल्पपराक्रमी साधकों की मनोदशा का वर्णन किया गया है। वे दो उपसर्ग हैं-~याचना परिषहरूप एवं आक्रोश परीषहरूप। ___याचना-साधु के लिए कष्टदायिनी, क्यों और कैसे ?--प्रश्न होता है कि साधु तो भिक्षाजीवी होता है फिर उसे भिक्षा मांगने में कष्ट क्यों होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है-सया दत्तेसणा दुक्खं "दुप्पणोल्लिया--साधु भिक्षाजीवी है, इसीलिए तो प्रत्येक वस्तु याचना (माँग) करके गृहस्थ से (उसके द्वारा) दी जाने पर लेनी या उपभोग करनी होती है। ऐसी स्थिति में पहले तो साधु को भिक्षा के लिए घर-घर घूमना, गृहस्थ (चाहे परिचित हो या अपरिचित) के घर में प्रवेश करना, आवश्यक वस्तु भिक्षाचरी के 42 दोषों में से किसी दोष से युक्त तो नहीं है, इस प्रकार की एषणा करना, सदैव दुःखदायक होता है। तत्पश्चात दाता से आवश्यक वस्तु की याचना करना असह्य दुःखद होता है। क्षधावेदना से पीड़ित किन्तु पूर्व (गृहस्थ) जीवन में अभिमानी नवदीक्षित, परोषहोपसर्ग से अनभ्यस्त अल्पसत्व साधक किसी के द्वार पर निर्दोष आहारादि लेने जाता है, उस समय उसकी मन:स्थिति का वर्णन विद्वानों ने यों किया है खिज्जइ मुखलावण्णं वाया घोलेइ कंठमझूमि / कहकहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणंतस्स / / गतिम्र'शो मुखे दैन्यं गात्रस्वेदो विवर्णता। मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचके / / अर्थात्-याचना करने से गौरव समाप्त हो जाता है इसलिए चेहरे की कांति क्षीण हो जाती है, वाणी कंठ में ही घुटती रहती है. सहसा यह नहीं कहा जाता कि मुझे अमुक वस्तु दो, हृदय धक-धक् करने लगता है। मांगने के लिए जाने में उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं, उसके मुख पर दीनता छा जाती है, शरीर से पसीना छुटने लगता है, चेहरे का रंग उड़ जाता है। इस प्रकार मृत्यु के समय जो चिन्ह दिखाई देते हैं, वे सब याचक में दृष्टिगोचर होते हैं। 'कवि रहीम' ने भी एक दोहे द्वारा याचक को मृतक-सा बताया है "रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं माँगन जाहि। उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि // " / इसका अर्थ यह नहीं हैं कि याचना परीषहरूप उपसर्ग प्रत्येक साधक के लिए ही दुःखदायी हो / जो महासत्त्व उपसर्ग सहिष्णु एवं अभ्यस्त संयमी साधक होते हैं, वे याचना के समय मन में | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy