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________________ 186 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिजा मारे गये और राज्य भी हाथ से गया, वैसे ही उपसर्ग सहने में कायर साधक भी कड़ाके की ठण्ड का उपसर्ग आने पर यह सोचकर खिन्न होता है कि 'मैंने घरबार भी छोड़ा, सुख-सुविधाएँ भी छोड़ी, परिवार वालों को भी रुष्ट किया. फिर भी ऐसी असह्य शर्दी का सामना करना / पुढे गिम्हामितावेणं “मच्छा अप्पोदए जहा- इस गाथा का आशय यह है कि गीष्मऋतु-ज्येष्ठ और आषाढ़मास में जब भयंकर गर्मी पड़ती है, लू चलती है, सनसनाती हुई गर्म हवाएँ शरीर को स्पर्श करती है, कण्ठ प्यास से व्याकुल हो जाता है, उस समय अल्पपराक्रमी साधक उदास, खिन्न एवं अनमना-सा हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवेकमूढ़ अल्पसत्व नव दीक्षित साधक एकदम तड़प उठते हैं। इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं जैसे कि किसी जलाशय में पानी सूखने लगता है, तब अत्यन्त अल्पजल में मछलियाँ गर्मी से संतप्त होकर तड़प उठती हैं, वहाँ से हटने में असमर्थ होकर वे वहीं मरणशील हो जाती हैं। फलितार्थ-दोनों ही गाथाओं का यह उपदेश फलित होता है कि शर्दी का उपसर्ग हो या गर्मी का, साधक को अपना मनोबल, धैर्य और साहस नहीं खोना चाहिए। उपसर्गों पर विजय प्राप्त करने से कमनिर्जरा, आत्मबल, और सहनशक्ति में वृद्धि होगी यह सोचकर उपसर्ग-सहन के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। दोनों उपसर्गों में शीतोष्ण, पिपासा, अचेलक, अरति आदि परीषहों का समावेश हो जाता है। कठिन शब्दों का अर्थ-सवातग=हवा के साथ, किसी प्रति में इसके बदले पाठान्तर हैं -सव्वंग= अर्थात् सभी अंगों को। रज्जहीणा=राज्य-विहीन, राज्य से स्रष्ट, चूणिसम्मत पाठान्तर है-रद्वहीणा अर्थात्-राष्ट्र से हीन, राष्ट्र से निष्कासित / गिम्हाभितावेणं =ग्रीष्मऋतु ज्येष्ठ आषाढ़मास के अभितापगर्मी से / अप्पोदए थोड़े पानी में। याचना-आक्रोश परीषह उपसर्ग 170. सदा दत्तेसणा दुक्खं जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता दुब्भगा चेव इच्चाहंसु पुढो जणा // 6 // 171. एते सद्द अचायंता गामेसु नगरेसु वा। तत्थ मंदा विसीयंति संगामंसि व भीरुणो / / 7 // 170. साधुओं के लिए दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा दी हुई वस्तु ही एषणीय (उत्पादादि दोषरहित होने पर ग्राह्य या उपभोग्य) होती हैं / सदैव यह दुःख (बना रहता) है, (क्योंकि) याचना (भिक्षा मांगने) 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या 10407 पर से 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80 पर से (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 408 पर से 7 (क) सूत्रकृतांग शोलांक वृत्ति पत्रांक 80 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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