________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 84 से 65 101 करे, परितापना पीड़ा न दे। उपलक्षण से पाप कर्षबन्ध के अन्य कारण तथा पीडाजनक (हिंसाजनक) ---मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन सेवन, परिग्रह वृत्ति से भी दूर रहे। अहिंसा से समता या समय को जाने- ज्ञानी के लिए सारभूत दूसरा तथ्य यहाँ बताया गया है'अहिंसा-समयं चेव वियाणिया' इसके तीन अर्थ यहाँ फलित होते हैं--- (1) अहिंसा से समता को जाने, इतना ही सार है, (2) अहिंसा रूप समता को विशेष रूप से जाने, इतना ही सार है, (3) इतना ही (यही) अहिंसा का समय (सिद्धान्त या आचार या प्रतिज्ञा) है, यह जाने। तीनों अर्थों का आशय यह है कि साधु ने दीक्षा ग्रहण करते समय 'करेमि भन्ते सामाइयं' के पाठ से समता की प्रतिज्ञा ली है। अहिंसा भी एक प्रकार की समता है अथवा समता का कारण है / क्यं कि साधक अहिंसा का पालन या आचरण तभी कर सकता है, जब वह प्राणिमात्र के प्रति समभाव-आत्मौपम्य भाव रखे। दूसरों की पीड़ा, दुःख, भय, त्रास को भी अपनी ही तरह या अपनी ही पीड़ा, दुःख, भय, वास आदि समझे / जैसे मेरे शरीर में विनाश, प्रहार, हानि एवं कष्ट से मुझे दुःख का अनुभव होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को भी उनके शरीर के विनाशादि से दुःखानुभव होता है। इसी प्रकार मुझे काई मारे-पीटे, सताये, मेरे साथ झूठ बोले, धोखा करे, चोरी और बेईमानी करे, मेरी बहन-बेटी की इज्जत लूटने लगे या संग्रहखोरी करे तो मुझे दुःख होगा, उसी तरह दूसरों के साथ मैं भी वैसा व्यवहार करू तो उसे भी दुःख होगा। इस प्रकार समतानुभूति आने पर ही अहिंसा का आचरण हो सकता है। __ भगवान महावीर ने तो स्पष्ट कहा है-'अप्पणा सच्चमेसेज्जा'- अपनी आत्मा को तराजू पर तोलकर सत्य का अन्वेषण करे। ऐसा करने पर ही मालूम होगा कि दूसरे प्राणी को मार आदि से उतनी ही पीड़ा होती है जितनी तुम्हें होती है। आचारांग सूत्र में तो यहाँ तक कह दिया है कि "जिस प्राणी को तुम मारना, पीटना. सताना, गुलाम बनाकर रखना, त्रास देना, डराना आदि चाहते हो, वह तुम्ही हो, ऐसा सोच लो कि उसके स्थान पर तुम्हीं हो।" 20 16 (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 276 (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 51 (य) 'करेमि भन्ते सामाइयं'-आवश्यक सूत्र, सामायिक सूत्र सभाष्य 20 (क) अहिंस्या समता अहिंसा समता तां चैतावद् विजानीयात् / -शीलोकवृत्ति पत्र 51 (ख) अप्पणा सच्चमेसेज्जा.... -उत्तराध्यन सूत्र ब०६ (ग) तुम सि णाम तं चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि, तुमं सि०"जं अज्जावेतव्वं ति.."तुमंसि"परितावेतव्वं ति मण्णसि, तुमंसि""परिधेतव्वं ति"; तुमंसि"उद्दवेतव्वंति मण्णसि / ' -आचारांग श्र. 1, अ० 5, उ०५, सू० 170 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org