________________ 'पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 667 ] [ 35 उसके अनुसार स्व-स्वकृत कर्मपरिणाम को सुर या असुर कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता है / ' कर्म का फल नियत है, अवश्यम्भावी है, उसे न मानकर एकमात्र नियति को सबका कारण मानना मिथ्या है। __ एकान्तनियतिवादी अपने शुभाशुभ कर्मों का दायित्व स्वयं पर न लेकर नियति पर डाल देता है, इसके कारण वह पुण्य-पाय, स्वर्ग-नरकादि परलोक, सुकृत-दुष्कृत, शुभाशुभफल आदि का चिन्तन छोड़कर निःसंकोच सावध अनुष्ठानों एवं काम-भोगों में प्रवृत्त हो जाता है / इस प्रकार नियतिवादी उभयलोक से भ्रष्ट हो जाता है, जब कि कर्म को मानने वाला अशुभकर्मों से दूर रहेगा, तथा कर्मक्षय करने का पुरुषार्थ करेगा और एक दिन सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा। चारों कोटि के पुरुष : मिथ्यावाद प्ररूपक-पृथक्-पृथक् बुद्धि, अभिप्राय, रुचि, दृष्टि, शील, प्रारम्भ और निश्चयवाले ये चारों पुरुष एकान्तवादी तथा अपने-अपने मताग्रह के कारण अधर्म को भी धर्म समझने वाले हैं, इस कारण ये चारों मिथ्यावादप्ररूपक हैं / अतः ये स्वकृतकर्मफलानुसार संसार के काम-भोगरूपी कीचड़ में फंस कर दुःखी होते हैं / भिक्षावृत्ति के लिए समुद्यत भिक्षु के लिए वैराग्योत्पादकपरिज्ञानसूत्र ६६७–से बेमि पाईणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति; तं जहा-प्रारिया वेगे अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरुवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसि च णं खेत्त-वत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति, तं जहा- अप्पयरा वा भुज्जतरा वा / तेसि च णं जण-जाणवयाई परिगहियाई भवंति, तं जहा-अप्पयरा वा भुज्जयरा वा / तहप्पकारेहि कुलेहि प्रागम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता, सतो वा वि एगे गायत्रो य उवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुद्विता / असतो वा वि एगे नायनो य उवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता। ६६७-(श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं-) मैं ऐसा कहता है कि पूर्व आदि जारों दिशाओं में नाना प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, जैसे कि कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य होते हैं, कोई उच्चगोत्रीय और कोई नीचगोत्रीय होते हैं, कोई मनुष्य लम्बे कद के (ऊंचे) और कोई ठिगने कद के (ह्रस्व) होते हैं, किसी के शरीर का वर्ण सुन्दर होता है, किसी का असुन्दर होता है, कोई सुरूप होते हैं, कोई कुरूप / उनके पास (अपने स्वामित्व के थोड़े या बहुत) खेत और मकान आदि होते हैं, उनके अपने जन (परिवार, कुल आदि के लोग) तथा जनपद (देश) परिगृहीत (अपने स्वामित्व के) होते हैं, जैसे कि किसी का परिग्रह थोड़ा और किसी का अधिक / इनमें से कोई पुरुष पूर्वोक्त कुलों में जन्म लेकर विषय-भोगों की आसक्ति छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने के लिए (दीक्षाग्रहण हेतु) उद्यत होते हैं। कई विद्यमान ज्ञातिजन (स्वज़न), अज्ञातिजन (परिजन) तथा उपकरण (विभिन्न भोगोपभोग-साधन या धन-धान्यादि वैभव) को छोड़कर भिक्षावृत्ति धारण करने 1. यदिह क्रियते कर्म, तत्परत्रोपभुज्यते, मूलसिक्त षु वृक्षेषु फलं शाखासु जायते // 1 // पदुपात्तमन्यजन्मनि शुभाशुभं वा स्वकर्मपरिणत्या, तच्छक्यमन्यथा नो कर्तु देवासुरैरपि हि // 2 // --सू. कृ. शी. वृत्ति प. 289 में उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org