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________________ द्वितीय उद्देसक / गाथा 278 से 265 281 स्त्री के मन को प्रसन्न रखने हेतु स्त्री वचनानुसार सबसे नीच (हलका) काम भी कर लेते हैं। हंसा वा= धोबियों की तरह / 'भोगत्थाए जैऽभियावन्ना'काम भोगों के लिए ऐहिक-पारलौकिक दुःखों का विचार किये बिना भोगों के अभिमुख-अनुकूल सावद्य अनुष्ठानों में प्रवृत्त / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर हैभोगत्वाए इत्थियामि आवमा' अर्थ होता है-काम भोगों की प्राप्ति के लिए स्त्रियों में अत्यासक्त।' उपसंहार 296. एयं खु तासु विण्णप्पं, संथवं संवासं च चएज्जा / तज्जातिया इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाता / / 16 / / 267. एवं भयं ण सेयाए, इति से अप्पगं निरु भित्ता। णो इथि गो पसुभिक्खू, णो सयपाणिणा णिलिज्जेज्जा // 20 // 298. सृधिसुद्धलेस्से मेधावी, परकिरियं च वज्जए णाणी। मणसा बयसा कायेणं, सब्वफाससहे अणगारे // 21 // 296. इच्चेवमाह से वोरे, धूतरए धूयमोहे से भिक्खू / तम्हा अज्झत्थविसुद्ध, सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वएज्जासि / / 22 // त्ति बेमि / ॥इत्थोपरिण्णा चउत्थमज्झयणं समत्त / 266. उनके (स्त्रियों के) विषय में इस प्रकार की बातें बताई गई हैं, (इसलिए) साधु स्त्रियों के साथ संस्तव (संसर्ग- अतिपरिचय) एवं संवास (सहवास) का त्याग करे। स्त्रीसंसर्ग से उत्पन्न होने वाले ये काम-भोग पापकारक या वज्रवत् पापकर्म से आत्मा को भारी करने वाले हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 267. स्त्री संसर्ग करने से जो (पूर्वोक्त) भय खतरे पैदा होते हैं, वे कल्याणकारी (श्रेयस्कर) नहीं होते। यह जानकर साधु स्त्रीसंसर्ग को रोककर स्त्री और पशु से युक्त स्थान में निवास न करे न ही इन्हें अपने हाथ से स्पर्श करे, अथवा अपने हाथ से अपने गुप्तेन्द्रिय का पीड़न न करे। 268. विशुद्ध लेश्या (चित्त की परिणति) वाला मेधावी-मर्यादा में स्थित ज्ञानी साधु मन, वचन और काया से परक्रिया (स्त्री आदि से सम्बन्धित विषयोपभोगादि पर-सम्बन्धी क्रिया, अथवा स्त्री आदि पर व्यक्ति से अपने पैर दबवाना, धुलाना आदि क्रिया) का त्याग करे। (वास्तव में, जो समस्त (स्त्री, शीतोष्ण, दंशमशक आदि परीषहों के) स्पर्शों को सहन करता है, वही अनगार है। 266. जिसने स्त्री आदि संगजनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था, जिसने मोह (राग-द्वेष) को पराजित कर दिया था, उन वीर प्रभु ने ही यह (पूर्वोक्त स्त्री परिज्ञा सम्बन्धी तथ्य) कहा है। इस 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 115 से 116 तक (ख) सूत्रकृतांग चूंणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 50 से 53 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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