________________ 260 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिमा मान लेता है, अर्थात् मेरे वश में हो गया है, इस प्रकार भलीभांति जान कर अथवा अपने द्वारा उसके लिए किये हुऐ कार्यों को गिना कर, उक्लद्धो-स्त्री जब पुरुष की आकृति, चेष्टा इशारे आदि से यह जान लेती है कि यह साधु मेरे वशीभूत हो गया है / 'तो पेसंति तहाभूएहि तब उसके अभिप्राय को जानने के पश्चात नौकर के द्वारा करने योग्य तुच्छ एवं छोटे से छोटे कार्य में नियुक्त करती है अथवा तथाभूत कार्यों का अर्थ यह भी है साधुवेष में रहन वाले पुरुष के योग्य कार्यों में प्रवृत्त करती है। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है 'ततो णं देसेति तहारुवेहि' अर्थ होता है वशीभूत हो जाने के बाद तथारूप कार्यों के लिए आदेश देती है / पहाहि == देखना, प्राप्त करना / वाफलाई आहराहिति = वल्गु-अच्छे-अच्छे नारियल, केला आदि फलों को ले आना / अथवा वगफलाई (पाठान्तर) का 'याफसानि' संस्कृत में रूपान्तर करके अर्थ हो सकता है धर्मकथारूप या ज्योतिष व्याकरणादि रूप वाणी (व्याख्यान) से प्राप्त होने वाले स्त्रादि रूप फलों को ले आइए। 'दारूणि सागपागाए'-सागभाजी पकाने के लिए लकडियाँ (इन्धन), पाठान्तर है अन्नपाकाय= चावल आदि, अन्न पकाने के लिए चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है 'अण्णपायाय' अर्थ उपर्युक्त ही है / पाताणि मे रयावेहि =मेरे पात्रों को रंग दो रंग-रोगन कर दो, अथवा मेरे पैर महावर आदि से रंग दो / कासवगं च मे समणुजाणाहि सिर मूडने के लिए काश्यप नाई को आज्ञा दो अथवा नाई से बाल कटाने की अनुज्ञा दो, (ताकि मैं अपने लम्बे केशों को कटवा डालूँ / ) 'कोसं च मोयमेहाए-मोक=पेशाब करने के लिए कोश-भाजन / कुक्कुयं चूर्णिकार के अनुसार अर्थ है-तुम्बवीणा; वृत्तिकार के अनुसार अर्थ है-खुनखुना / वेणुपलासियंबशी या बांसुरी / गुलियं-औषध गुटिका-सिद्ध गुटिका, जिससे यौवन नष्ट न हो / 'तेल्लं मुहभिलिंगजाए=मुख पर अभ्यंगन करने --मलने के लिए ऐसा तेल लाएँ, जो मुख की कान्ति बढाए / वेणुफलाई सन्निधाणाए=बांस के फलक की बनी हुई पेटी लादें सुफणि =जिस सुखपूर्वक तक्रादि पदार्थ पकाये या गर्म किये जा सकें ऐसा बर्तन-तपेली या बटलोई। घिसम्= ग्रीष्म ऋतु में। चंदालगं=देवपूजन करने के लिए तांबे का छोटा लोटा, जिसे मथुरा में 'चन्दालक' (चण्डुल) कहते हैं / फरगं= कदक-करवा पानी रखने का धातु का एक बर्तन अथवा मद्य का भाजन। बच्चघर-व!ग्रह-पाखाना, शौचालय / चूर्णिकार के अनुसार- 'वच्वघरगं हाणिगा' --ब!गृह का अर्थ स्नानिका-स्नानघर / खणाहि-बनाओ। सरपादन-जिस पर रखकर बाण (शर) फेंके जाते धनुष। गोरहग तीन वर्ष का बैल, अथवा बैलों से खींचा जाने वाला छोटा रथ। सामणेराए=श्रामणेर श्रमण पुत्र के लिए। घडिंग-मिट्टी की छोटी कुलडीया, घड़िया अथवा छोटी-सी गुड़िया। सडिडिमयं =ढोल आदि के सहित बाजा या झुनझुना / चेलगोलं= कपड़े की बनी हुई गोल गेंद। कुमारभूताय राजकुमार के समान अपने कुमार के लिए / 'आवसहं च जाण भत्तं च-वर्षाकाल में निवास करने योग्य भकान (आवास) और चावल आदि भोजन का प्रवन्ध कर लो। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-'आवसथं जाणाहि भत्ता / " अर्थात् --हे स्वामी (पतिदेव) ! वर्षाकाल सुख बिताने योग्य मकान के प्रबन्ध का ध्यान रखना / “पाउल्लाई संकमाए' =वृत्तिकार के अनुसार--मूज की बनी हुई या काष्ट की बनी हुई पादुकाखडाऊ, इधर-उधर घूमने के लिए लाओ, चूर्णिकार के अनुसार--कठ्ठपाउगाओ= काठ-पादुका / 'माणप्पा हवंति दासा वा'=खरीदे हुए दास की तरह ऐसे पुरुषों पर स्त्रियों द्वारा आज्ञा की जाती है। संठवेति धाती वा-धाय की तरह बच्चे को गोद में रखते हैं / चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर हैं-तण्णवेंति धाव इवा =अर्थ होता है-रोते हुए बच्चे को धाय की तरह अनेक प्रकार के मधुर आलापों से समझा-बुझाकर रखते (चुप करते) हैं / सुहिराममा वि ते संतामन में अत्यन्त लज्जित होते हुए भी वे, लज्जा को छोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org