SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 266 से 296 283 होने से तदनुसार चलना अनिवार्य है / सू० गा० 296 में शास्त्रकार कहते हैं- "इच्चेवमाह से वीरे धूतरए धूयमोहे..."तम्हा ....." / " कुछ प्रेरणाएँ - इसके पश्चात् स्त्रीसंगत्याग का दूसरा पहलू है-साधु स्त्रीसंगत्याग कैसे या किस तरीके से करे ? वैसे तो इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में, तथा द्वितीय उद्देशक की पूर्वगाथाओं में यत्रतत्र स्त्रीसंगत्याग की प्रेरणा दी गई है, फिर भी परमहितैषी शास्त्रकार ने पुनः इसके लिए कुछ प्रेरणाएँ अध्ययन के उपसंहार में दी हैं। प्रथम प्रेरणा-उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन में स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीपरिचय, स्त्रीसहवास तथा स्त्री-मोह से जो-जो अनर्थ परम्पराएँ बताई गई हैं, उन्हें ध्यान में रखकर आत्महितषी साधु स्त्रीसंस्तव, (संसर्ग) स्त्रीसंवास (सहनिवास) आदि का त्याग करे / सू० गा० 266 में 'संथवं संवासं च चएज्जा' इस पंक्ति द्वारा स्पष्टतः स्त्रीसंगत्याग की प्रेरणा दी गई हैं। द्वितीय प्रेरणा-स्त्रीसंसर्गजनित अनेक खतरों में से कोई भी खतरा पैदा होते ही साधु तुरन्त अपने आपको उससे रोके / बिजली का करेन्ट छू जाते ही जैसे मनुष्य सावधान होकर फौरन दूर हट जाता है, उसका पुनः स्पर्श नहीं करता, वैसे ही स्त्रीसंगजनित (प्रथम उद्देशक में वर्णित) कोई भी उपद्रव-उपसर्ग पैदा होता दीखे कि साधक उसे खतरनाक (भयकारक) एवं आत्मविनाशकारी समझकर तुरन्त सावधान हो जाए, उससे दूर हट जाए, अपने-आपको उसमें पड़ने से रोक ले और संयमपथ में स्थापित करे। उसका स्पर्श बिलकुल न करे। शास्त्रकार ने इन शब्दों में प्रेरणा दी है-'इति से अपगं निमित्ता।" . तृतीय प्रेरणा- स्त्रीसंगपरित्याग के सन्दर्भ में तृतीय प्रेरणा सू० गा० 297 के उत्तराद्ध द्वारा दी गई है-'यो इस्थि, जो पसुभिक्खू, णो सयपाणिणा णिलिज्जेज्जा।' इस पंक्ति में णिलिज्जेजा (निलीयेत) इस एक ही क्रिया के चार अर्थ फलित होने से स्त्रीसंगत्याग के सन्दर्भ में क्रमश: चार प्रेरणाएँ निहित हैं(१) भिक्षु स्त्री और पशु को अपने निवास स्थान में आश्रय न दे, (2) स्त्री और पशु से युक्त संवास का आश्रय न ले, क्योंकि साधु के लिए शास्त्र में स्त्री-पशु-नपुसक-वजित शयनासन एवं स्थान ही विहित है, (3) साधु स्त्री और पशु का स्पर्श या आश्लेष भी अपने हाथ से न करे, और (4) साधु स्त्री या पशु के साथ मैथुन सेवन की कल्पना करके अपने हाथ से स्वगुप्तेन्द्रिय का सम्बाधन (पीड़न या मर्दन) न करेहस्तमैथुन न करे। चौथी प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग-त्याग के सिलसिले में शास्त्रकार चौथी प्रेरणा सू० गा० 218 के द्वितीय चरण द्वारा देते हैं-'परकिरियं च वज्जए णाणी / ' अर्थात-ज्ञानी साधु परक्रिया का त्याग करे। प्रस्तुत सन्दर्भ में परक्रिया के लगभग चार अर्थ प्रतीत होते हैं-(१) आत्मभावों से अन्य परभावों-अनात्मभावों की क्रिया, अथवा आत्महित में बाधक क्रिया, परक्रिया है, (2) स्त्री आदि आत्मगुण बाधक (पर) पदार्थ के लिए जो क्रिया की जाती है, अर्थात्-विषयोपभोग द्वारा (देकर) जो परोपकार किया जाता है, (क) सूत्रकृतांग शीलांक बृत्ति पत्रांक 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy