________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 176 161 प्रान्तभोजी, दिया हुआ ही आहार लेते हैं, सिर का लोच करते हैं, समस्त भोगों से वंचित रहकर दुःखमय जीवन व्यतीत करने वाले हैं। वइं जुजति वाणी का प्रयोग करते हैं-बोलते हैं / नगिणाः= नग्न / णिकार सम्मत पाठान्तर है- 'चरगा' अर्थात्-ये लोग परिव्राजक है, घुमक्कड़ है / पिंडोलगा= दूसरों से पिंड की याचना करते हैं / अहमा अधम है, मैले-गंदे या घिनौने है। कडूविणटुगा = खुजाने से हुए घावों या रगड़ के निशानों से जिनके अंग विकृत हो गए। उज्जल्ला---'उद् गतो जल्ल:-शुष्कप्रस्बेदो येषां ते उज्जल्पा:-स्नान न करने से सूखे पसीने के कारण शरीर पर मैल जम गया है। चूर्णिकार ने इसके बदले 'उज्जाया'-- पाठान्तर मानकर अर्थ किया है- 'उज्जातो-मृगोनष्ट इत्यर्थः :' बेचारे ये नष्ट हो गए है-उजड़ गए है। असमाहिता-अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति-अर्थात् ये असमाहित हैभद्दे बीभत्स, दुष्ट है या प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करते हैं। विप्पडिबन्ना=विप्रतिपन्ना:-साधुसन्मार्गषिणः / ' अर्थात्- साधुओं और सन्मार्ग के द्वषी-द्रोही / अप्पणा तु अजाणगा=स्वयं अपने आप तो अज्ञ ही है. तु शब्द से यह अर्थ फलित होता है-अन्य विवेकीजनों के वचन को भी नहीं मानते / मन्दा मोहेण पाउडा=ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से तथा मोह-मिथ्यादर्शन से प्रावृत-आच्छादित है / चूणिकार ने इस वाक्य को एक और व्याख्या की है--अधवा मतिमन्दा इत्थिगाउया मन्दविग्णाणा स्त्री मोहेन / अर्थात् स्त्री के अनुचर बन जाने से मतिमन्द हैं, अथवा नारीमोह के कारण मन्द विज्ञानी हैं / तमाओ ते तमं जति -अज्ञान रूप अन्धकार से पुनः गाढ़ान्धकार में जाता है, अथवा नीचे से नीची गति में जाता हैं / 13 वस्तुतः विवेकहीन और साधु विद्वेषी होने से मोहमूढ़ होकर वे अन्धकाराच्छन्न रहते हैं / 14 दंश-मशक और तृणस्पर्श परीषह के रुप में उपसर्ग 176 पुट्ठो य दंस-मसहि तणफासमचाइया। न मे दिठे परे लोए जई परं मरणं सिया // 12 // 176. डांस और मच्छरों के द्वारा स्पर्श किये (काटे) जाने पर तथा तृण स्पर्श को न सह सकता हुआ (साधक) (यह भी सोच सकता है कि) मैंने परलोक को तो नहीं देखा, किन्तु इस कष्ट से मरण तो सम्भव ही है (साक्षात् ही दीखता है)। 13 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 81 का सार (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) 14 विवेकान्ध लोगों की वृत्ति के लिए एक विद्वान् ने कहा एक हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम् / / एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धः तस्यापमार्ग चलने खलु कोऽपराधः ? -एक पवित्र नेत्र तो सहज विवेक है, दुमरा है-विवेकी जनों के साथ निवास / संसार में ये दोनों आंखें जिसके नहीं है, वह वस्तुतः अन्धा है। अगर वह कुमार्ग पर चलता है, तो अपराध ही क्या है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org