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________________ 44 / सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध उद्विग्न (भयभीत) किये जाने से, यहाँ तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का-सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं। ऐसा जान कर समस्त प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात अपनी प्राज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात पकड कर या दास-दासी आदि खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत) करना चाहिए। ६८०-से बेमि-जे य अतीता जे य पड़प्पण्णा जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंता सवे ते एवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेति, एवं परूवेंति--सब्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयन्वा, ण परिघेतवा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयन्वा, एस धम्मे धुवे णितिए सासते, समेच्च लोग खेतन्नेहि पवेदिते। ६८०-इसलिए (वही बात) मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ---भूतकाल में (ऋषभदेव आदि)जो भी अर्हन्त (तीर्थंकर) हो चुके, वर्तमान में जो भी (सीमन्धरस्वामी आदि) तीर्थकर हैं, तथा जो भी भविष्य में (पद्मनाभ आदि) होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान (परिषद में) ऐसा ही उपदेश देते हैं; ऐसा ही भाषण करते (कहते) हैं, ऐसा ही (हेतु, दृष्टान्त, युक्ति आदि द्वारा) बताते (प्रज्ञापन करते) हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जोव और सत्त्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा-पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में पकड़ कर या खरीद कर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, और न उन्हें उद्विग्न (भयभीत या हैरान) करना चाहिए / यही धर्म ध्र व है, नित्य है, शाश्वत (सदैव स्थिर रहने वाला) है। समस्त लोक को केवल-ज्ञान के प्रकाश में जान कर जीवों के खेद (पीड़ा) को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है / ६८१-एवं से भिक्खू विरते पाणातिवातातो जाव विरते परिग्गहातो / णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, गो वमणं, णो धूमं तं (णो धूमणेत्तं) पि प्राविए। ६८१-इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात (हिंसा) से लेकर परिग्रह-पर्यन्त पाँचों पाश्रवों से विरत (निवृत्त) हो, दतौन आदि दाँत साफ करने वाले पदार्थों से दाँतों को साफ न करे, शोभा के लिए आँखों में अंजन (काजल) न लगाए, दवा लेकर वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या श्रावासस्थान को धूप आदि से सुगन्धित न करे और खाँसी आदि रोगों की शान्ति के लिए धूम्रपान न करे। ६८२-से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे प्रमाणे अमाए अलोभे उवसंते परिनिखुडे / णो प्रासंसं पुरतो करेज्जा—इमेण मे दिट्ठण वा सुएण वा भएण वा विण्णाएण वा इमेण वा सुचरिय तवनियम-बंभचेरवासेणं इमेण वा जायामातात्तिएणं धम्मेणं इतो चुते पेच्चा देवे सिया, कामभोगा बसवत्ती, सिद्ध वा अदुक्खमसुभे, एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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